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________________ ६६ कुवलयानन्दः विद्वानेव हि जानाति विद्वज्जनपरिश्रमम् । न हि वन्ध्या विजानाति गुव: प्रसववेदनाम् ।। यदि सन्ति गुणाः पुंसां विकसन्त्येव ते स्वयम् । न हि कस्तूरिकामोदः शपथेन विभाव्यते ॥५१॥ नहीं किया जा सकता, किन्तु प्रतिवस्तूपमा वैधयं के द्वारा भी उपस्थित की जा सकती है, जैसे निम्न उदाहरणों में : टिप्पणी-प्रतिवस्तूपमा का लक्षण चन्द्रिकाकार ने यों दिया है :-'भिन्नशब्दबोध्यकधर्मगम्यं प्रस्तुताप्रस्तुतवाक्यार्थसाहश्यं प्रतिवस्तूपमा। इसमें भिन्नशब्द' इत्यादि पदके द्वारा दृष्टान्तका वारण किया गया है, क्योंकि पृष्टान्त में एक ही धर्म नहीं पाया जाता, वहां तो बिंबप्रतिबिंबभावरूप सादृश्य पाया जाया है। प्रतिवस्तूपमा में वस्तुप्रतिवस्तुभाव होता है, दृष्टान्त में बिंबप्रतिबिंबमाव । इसी पद के 'गम्यं' शब्द के द्वारा वाक्यार्थोपमा (-दिवि भाति यथा भानुस्तथा वं माजसे मुवि) का वारण किया गया है, क्योंकि उक्त उपमा में सादृश्य वाच्य होता है, यहां गम्य ( व्यंग्य)। अर्थावृत्तिदीपक के वारण के लिए 'प्रस्तुताप्रस्तुत' इत्यादि पद का प्रयोग किया गया है, क्योंकि 'प्रस्तुताप्रस्तुत' प्रतिवस्तूपमा में होते हैं, जबकि अर्थावृत्तिदीपक में या तो दोनों प्रस्तुत होंगे या दोनों अप्रस्तुत । 'वाक्यार्थसादृश्यं' का प्रयोग स्मरण का वारण करने के लिए हुआ है । स्मरण अलंकार, जैसे इस पथ में-'आननं मृगशावाच्या वीच्य लोलालकावृतम् । भ्रमभ्रमरसंकीर्ण स्मरामि सरसीरहम्'। इस पद्य में भी स्मरण को हटा लेने पर 'लोलालकावृत आनन भ्रमद्भ्रमरसंकीर्ण सरसीरुह के समान है (ताशसरोरुहसदृशं तादृशमाननं) इस पदार्थगता उपमा की ही प्रतीति होती है। अतः इसके द्वारा स्मरण का भी वारण हो जाता है। 'विद्वान् के परिश्रम को विद्वान् ही जानता है। बांश महती प्रसववेदना को नहीं जानती। ___ 'यदि लोगों में गुण हैं, तो वे स्वयं ही विकसित होते हैं। कस्तूरी की सुगन्ध सौगन्द से नहीं जानी जा सकती।' (यहां प्रथम श्लोक में पूर्वार्ध उपमेयवाक्य है, उत्तरार्ध उपमानवाक्य, इसी तरह द्वितीय श्लोक में भी पूर्वार्ध उपमेयवाक्य है, उत्तरार्ध उपमानवाक्य । यहां दोनों स्थानों पर वैधर्म्य के द्वारा समान धर्म का पृथक-पृथक निर्देश किया गया है।) टिप्पणी-'यदि सन्ति गुणाः' इत्यादि पद्य में वैधर्म्यगतप्रतिवस्तूपमा कैसे हो सकती है ? इस शंका का समाधान यों किया जा सकता है। शंकाकार की शंका यह है-'वैधयं उदाहरण' हम उसे कहते हैं, जहां प्रस्तुत धर्मिविशेष के साथ प्रयुक्त अर्थ को दृढ बनाने के लिए अप्रकृत अर्थ के रूप में किसी ऐसे अन्य धर्मी का वर्णन किया गया हो, जो प्रस्तुत धर्मी के द्वारा आक्षिप्त अपने न्यतिरेक (प्रतियोगी ) का समानजातीय हो । (वैधयोदाहरणं हि प्रस्तुतधर्मिविशेषोपारूढा. यंदाढर्याय स्वाचिप्तस्वष्यतिरेकसमानजातीयस्य धय॑न्तरारूढस्याप्रकृतार्थस्य कथनम् ।) इसका उदाहरण यह है: वंशभवो गुणवानपि संगविशेषेण पूज्यते पुरुषः । नहि तुम्बीफलविकलो वीणादण्डः प्रयाति महिमानम् ॥ इस पब में 'संगविशेषेण पूज्यते' इस प्रस्तुत अर्थ के द्वारा 'संगविशेष के बिना नहीं पुजासकता' इस व्यतिरेकरूप अर्थ का आक्षेप होता है, इस व्यतिरेकरूप अर्थ के समान जातीय अन्य धर्मी से संबद्ध अप्रकृत अर्थ का प्रयोग 'तूबी के फल से रहित वीणादण्ड आदर प्राप्त नहीं करता' इस रूप
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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