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________________ ६७ दृष्टान्तालङ्कारः १८ दृष्टान्तालङ्कारः चेद्विम्बप्रतिविम्बत्वं दृष्टान्तस्तदलंकृतिः । त्वमेव कीर्तिमान् राजन् ! विधुरेव हि कान्तिमान् ॥ ५२ ॥ में किया गया है । इस प्रकार यह वैधम्र्योदाहरण है । 'यदि संति गुणाः पुंसां' इत्यादि पद्य में उपमेयवाक्य में 'गुण स्वयं विकसित हो रहे हैं' कोई दूसरा पदार्थ उनका विकास नहीं करता, इस प्रस्तुत अर्थ का सजातीय अप्रकृत अर्थं ही 'शपथेन न विभाव्यते किंतु स्वयमेव' इसके द्वारा प्रतीत हो रहा है, क्योंकि अप्रकृत अर्थ प्रकृत अर्थ के समान (अनुरूप ) ही पर्यवसित हो जाता है । भाव यह है यहाँ 'शपथ से नहीं जानी जा सकती अपितु स्वयं ही जानी जा सकती है' इस अर्थापत्तिगम्य अर्थ के द्वारा उपमानवाक्य वाला अर्थ उपमेय वाक्य का सजातीय ही बन जाता है, फिर यह उदाहरण वैधर्म्य का कैसे हुआ ? यह शंका पण्डितराज जगन्नाथ की है । (दे० रसगंगाधर पृ० ४४६-४८ ) चन्द्रिकाकार ने यह शंका उठा कर इसका समाधान यों किया है :- आपके 'वंशभवो गुणवानपि इत्यादि पद्य में भी वैधम्र्योदाहरणत्व कैसे है ? वहाँ भी 'तुम्बीफलविकल वीणादण्ड आदर नहीं पाता, किन्तु तुम्बीफलयुक्त ही आदर पाता है' इस प्रकार अप्रकृत प्रकृत का सजातीय ( अनुरूप ) हो जाता है । जहाँ कहीं वैधम्र्योदाहरण होगा, वहाँ सभी जगह साधर्म्यपर्यवसान मानना ही होगा, क्योंकि उसके बिना उपमा हो ही न सकेगी, यदि ऐसा न करेंगे तो साधर्म्य ही समाप्त ( उच्छिन्न ) हो जायगा । यदि उस पद्य को आपने इसलिए वैधम्र्योदाहरण के रूप में दिया है कि वहाँ आपाततः वैधर्म्य पाया जाता है, तो यह बात 'यदि संति गुणाः' वाले अस्मदुदाहृत पद्य पर भी लागू होती है । साथ ही आपने 'वैधम्र्योदाहरणं हि' इत्यादि के द्वारा जो वैधम्र्योदाहरण का निर्वचन किया वह भी दुष्ट है, क्योंकि ऐसा निर्वचन करने पर तो निम्न वैधर्म्यदृष्टान्त में उसकी अव्याप्ति पाई जाती है : 'भटा परेषां विशरारुतामगुर्दधत्यवाते स्थिरतां हि पांसवः ।' क्योंकि यहाँ 'भटाः परेषां विशरारुताम् अगुः' ( शत्रुओं के योद्धा मुक्तबाण हो गये ) यह प्रस्तुतवाक्यार्थ अपने व्यतिरेक का आक्षेप नहीं करता, जब कि यहाँ 'अवाते पांसवः स्थिरतां दधति' ( हवा न चलने पर धूल के कण शांत रहते हैं ) यह अप्रस्तुत वाक्यार्थ अपने व्यतिरेक (वाते वाति सति पांसवः स्थिरतां न दधति) का आक्षेप करता है तथा उससे उपमेयवाक्य के साथ बिम्बप्रतिबिम्वभाव घटित होता है । तब फिर आपके निर्वचन का 'स्वाक्षिप्तस्वष्यतिरेकसमानजातीयस्य धर्म्यन्तरारूढाप्रकृतार्थस्य' वाला अंश कैसे संगत हो सकेगा ? अतः स्पष्ट है वैधर्म्यदाहरण में व्यतिरेक का आक्षेप प्रस्तुतार्थ या अप्रस्तुतार्थं में से कोई एक कर सकता है । १८. दृष्टान्त अलङ्कार ५२ - जहाँ उपमेय वाक्य तथा उपमान वाक्य में निर्दिष्ट भिन्न धर्मों में बिम्बप्रतिबिंभाव हो, वहाँ दृष्टान्त नामक अलंकार होता है । जैसे, हे राजन्, संसार में अकेले तुम ही यशस्वी हो तथा अकेला चन्द्रमा ही कांतिमान् है । ( यहाँ प्रथम वाक्य ( उपमेय वाक्य ) में कीर्तिमत्व धर्म निर्दिष्ट है, द्वितीय वाक्य ( उपमान वाक्य ) में कांतिमध्व, यहाँ कीर्ति तथा कांति में बिम्बप्रतिबिम्बभाव है | )
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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