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________________ प्रतिवस्तूपमालङ्कारः भाति, तथापि वीक्षणमात्रस्यावजनीयस्य प्रतिषेधानहत्वादिच्छापूर्वकवीक्षाप्रति. षेधोऽयमनिच्छापर्यवसित एवेति धर्मैक्यमनुसंधेयम् । अर्थावृत्तिदीपकं प्रस्तुतानामप्रस्तुतानां वा; प्रतिवस्तूपमा तु प्रस्तुताप्रस्तुतानामिति विशेषः । अयं चापरो विशेषः-आवृत्तिदीपकं वैधर्येण न संभवति, प्रतिवस्तूपमा तु वैधयेणापि दृश्यते । यथा पूर्वक वीक्षाप्रतिषेध (इच्छा से किसी वस्तु को देखने से अपने आपको रोकना) की प्रतीति करेंगे, इस प्रकार 'अवीक्षा' रूप अर्थ अनिच्छा में ही पर्यवसित हो जाता है। अतः दोनों में समान धर्म (धर्मेक्य)हूँढ़ा जा सकता है। टिप्पणी-इस पद्य का रसिकरंजनीकार सम्मत पाठ दूसरा ही है, उसका चतुर्थ चरण 'मधुव्रतो नेसुरकं हि वीक्षते' है। यही पाठ पण्डितराज तथा नागेश ने माना है। उसका अर्थ होगा ....."भौंरा तालमखाने ( इक्षुरक) को नहीं देखता' । पण्डितराज ने अप्पय दीक्षित के इस पद्य में दोष माना है । वे बताते हैं कि कुवलयानन्दकार ने यद्यपि किसी तरह इस पद्य में 'वीक्षण' को भी इच्छाप्रतिषेधरूप धर्म में पर्यवसित करके उपमेयवाक्य तथा उपमानवाक्य में धमक्य प्रतिपादित कर दिया है, नहीं तो यहां 'इच्छति' तथा 'वीक्षति' एक ही सामान्य धर्म न मानने पर ( वस्तुप्रतिवस्तुभाव घटित न होने पर) बिम्बप्रतिबिम्बभाव मानकर दृष्टान्त मानना होगा, तथापि इस पद्य का जिस रूप में पाठ दिया गया है, उसमें उपमेयवाक्य में 'पादपंकजे निवेशितात्मा' भक्त का विशेषण है, तथा यहां आधार सप्तमी पाई जाती है, जब कि उपमानवाक्य में 'स्थितेऽरविन्दे (सति)' इस सतिसप्तमी का प्रयोग करने पर यह अंश भ्रमर (मधुव्रत ) का विशेषण नहीं बन सकता। इस प्रकार यह सति सप्तमी न तो वस्तुप्रतिवस्तुभाव के ही अनुरूप है, न बिम्बप्रतिबिम्बभाव के ही, इस तरह इस पद्य में शिथिलता तो बनी ही रहती है। यदि इसके तृतीय पद में हेर-फेर कर पद्य को यों बना दिया जाय तो सुन्दर रहेगा : 'तवामृतस्यन्दिनि पादपंकजे निवेशितात्मा कथमन्यदिच्छति । स्थितोऽरविन्दे मकरन्दनिर्भरे मधुव्रतो नेचुरकं हि वीक्षते ॥' 'एवम्-'तवा... वीक्षते'इति कुवलयानन्दोदाहृते आलुवन्दारुस्तोत्रपद्ये वीक्षणमात्र. स्यावर्जनीयस्य प्रतिषेधानहत्वादिच्छापूर्वकवीक्षणप्रतिषेधस्य च 'सविशेषणे हि-' इति न्यायेनेच्छाप्रतिषेधधर्मपर्यवसायितया यद्यपि धर्मेक्यं सुसंपादम् । अस्तु वा दृष्टान्तालङ्कारः तथापि पादपङ्कजे निवेशितात्मेत्याधारसप्तम्याः स्थितेऽरविन्दे इति सतिसप्तमी वस्तुप्रतिवस्तुबिम्बप्रतिबिम्बभावयोरन्यतरेणापि प्रकारेण नानुरूपा, इत्यसंप्ठुलता स्थितैव । 'स्थितोऽरविन्दे मकरन्दनिर्भरे' इति चेस्क्रियते तदा तु रमणीयम् । (रसगंगाधर पृ. ४५१-५२) साथ ही देखिये रसिकरंजनी-'अत्रोदाहरणे 'स्थितेऽरविन्दे' इति न युक्तः पाठः। तथात्वे निवेशितास्मेति उपमेयविशेषणस्योपमाने प्रतिविशेषणाभावेन विच्छित्तिविशेषाभावप्रसंगात् । अतः 'स्थितोऽरविन्दे' इति युक्तः पाठः।' (पृ. ८६ ) अर्थावृत्तिदीपक में भी तत्तत् वाक्य में पृथक पदों के द्वारा समान धर्म का निर्देश पाया जाता है, तो फिर प्रतिवस्तूपमा में उससे क्या भेद है-इस जिज्ञासा का समाधान करते कहते हैं-अर्थावृत्तिदीपक में उपमान तथा उपमेय दोनों या तो प्रस्तुत होते हैं, या अप्रस्तुत, जब कि प्रतिवस्तूपमा में एक वाक्य प्रस्तुतपरक (उपमेय) होता है, दूसरा अप्रस्तुतपरक (उपमान)। साथ ही इनमें दूसरा भेद भी पाया जाता है, वह यह कि आवृत्तिदीपक सदा साधयं में ही पाया जाता है, उसे वैधय॑शैली से उपन्यस्त ५ कुव०
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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