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________________ ६४ कुवलयानन्दः Mw तापेन भ्राजते सूरः शूरथापेन राजते ॥ ५१ ॥ यत्रोपमानोपमेयपरवाक्ययोरेकः समानो धर्मः प्रथ निर्दिश्यते सा प्रतिवस्तूपमा । प्रतिवस्तु प्रतिवाक्यार्थमुपमा समानधर्मोऽस्यामिति व्युत्पत्तेः । यथाऽचैव भ्राजते राजत इत्येक एव धर्म उपमानोपमेयवाक्ययोः पृथग्भिन्नपदाभ्यां निर्दिष्टः | यथा वा यथा वा स्थिरा शैली गुणवतां खलबुद्धया न बाध्यते । रत्नदीपस्य हि शिखा वात्ययापि न नाश्यते ॥ तवामृतस्यन्दिनि पादपङ्कजे निवेशितात्मा कथमन्यदिच्छति । स्थितेऽरविन्दे मकरन्दनिर्भरे मधुव्रतो नेक्षुरसं समीक्षते || अत्र यद्यपि उपमेयवाक्ये अनिच्छा उपमानवाक्ये अवक्षेति धर्मभेदः प्रति रूप से निर्दिष्ट हो, वहाँ प्रतिवस्तूपमा अलंकार होता है। जैसे सूर्य तेज के कारण प्रकाशित होता है, वीर धनुष से सुशोभित होता है । जहाँ उपमानपरक तथा उपमेयपरक वाक्यों में एक ही समान धर्म पृथक् रूप से निर्दिष्ट हो, वहाँ प्रतिवस्तूपमा अलंकार होता है । प्रतिवस्तूपमा शब्द की व्युत्पत्ति यह है - जहाँ प्रतिवस्तु अर्थात् प्रत्येक वाक्यार्थ में उपमा अर्थात् समानधर्म पापा जाय । जैसे, ऊपर के कारिका में 'भ्राजते' तथा 'राजते' पदों के द्वारा एक ही समानधर्म पृथकरूप से निर्दिष्ट हुआ है । यहाँ 'भ्राजते' उपमानवाक्य में प्रयुक्त हुआ है, 'राजते' उपमेयवाक्य में । प्रतिवस्तूपमा के अन्य उदाहरण निम्न हैं। : 'दुष्टों की बुद्धि गुणवान् व्यक्तियों के स्थिर सद्व्यवहार को बाधा नहीं पहुँचा सकती; रत्नदीप की ज्योति को तूफान भी नहीं बुझा सकता ।' ( यहाँ 'स्थिरा' इत्यादि पूर्वार्ध उपमेयवाक्य है, 'रत्नदीपस्य' इत्यादि उपमानवाक्य । इनके 'खलबुद्धया न बाध्यते' तथा 'वात्ययापि न नाश्यते' के द्वारा समानधर्म का पृथक् पृथक् निर्देश पाया जाता है । ) कोई भक्त इष्टदेवता से प्रार्थना कर रहा है : - 'हे भगवन्, तुम्हारे अमृतवर्षी चरणकमल में अनुरक्तचित्त व्यक्ति दूसरी वस्तु की इच्छा कैसे कर सकता है ? मकरन्द से परिपूर्ण कमल के रहते हुए भौंरा इतुरस को नहीं देखता ।' इस पद्य के उपमेय वाक्य में 'अनिच्छा' तथा उपमानवाक्य में 'अवीक्षा' नामक धर्म का उपादान किया गया है, अतः यह शंका उठना संभव है कि दोनों धर्मों में समानता नहीं दिखाई देती, फिर इसे प्रतिवस्तूपमा का उदाहरण कैसे माना जा सकता है ? इस शंका का समाधान करते कहते हैं। : यद्यपि इस पद्य के उपमेयवाक्य में अनिच्छा तथा उपमानवाक्य में अवीक्षा का प्रयोग होने से आपाततः धर्मभेद प्रतीत होता है, तथापि अनिष्ट वीक्षणमात्र को हम किसी तरह नहीं रोक सकते, वह प्रतिषेधानर्ह है, इसलिए 'अवीक्षा' के द्वारा हम इच्छा.
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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