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________________ प्रतिवस्तूपमालङ्कारः यथा वा उत्कण्ठयति मेघानां माला वर्ग कलापिनाम् । यूनां चोत्कण्ठयत्यद्य मानसं मकरध्वजः ।। शमयति जलधरधारा चातकयूनां तृष चिरोपनताम् । क्षपयति च वधूलोचनजलधारा कामिनां प्रवासरुचिम् ॥ वदनेन निर्जितं तव निलीयते चन्द्रबिम्बमम्बुधरे । अरविन्दमपि च सुन्दरि ! निलीयते पाथसां पूरे ॥ एवं चावृत्तीनां प्रस्तुताप्रस्तुतोभयविषयत्वाभावेऽपि दीपकच्छायापत्तिमात्रेण दीपकव्यपदेशः ॥ ४६-२०॥ १७ प्रतिवस्तूपमालङ्कारः वाक्ययोरेकसामान्ये प्रतिवस्तूपमा मता। अथवा जैसे वर्षाकाल में मेघों की पंक्ति मयूरों के समूह को उत्कण्ठ (उन्मुख, ऊँचे कण्ठ वाला) बना देती है। साथ ही कामदेव युवकों के मन को उत्कण्ठित कर देता है। (यहाँ मयूरवृन्द तथा युवकमन इन पदार्थों का उत्कण्ठित होना रूप एकधर्माभिसंबंध वर्णित है । यहाँ पदावृत्तियमक है, क्योंकि 'उत्कण्ठयति' पद की आवृत्तिपाई जाती है।) मेघों की जलधारा चातकों की बड़े दिनों से उत्पन्न प्यास को शांत करती है, नायिकाओं की अश्रुधारा नायकों की विदेश जाने की इच्छा को समाप्त कर देती है। यहाँ 'मेघधारा' तथा 'वधूलोचनजलधारा' रूप पदार्थों का तत्तत् पदार्थ को शांत कर देना रूप एकधर्माभिसंबंध वर्णित है। यहाँ कवि ने एक स्थान पर 'शमयति' का प्रयोग किया है, दूसरे स्थान पर रूपयति' का, किंतु अर्थ दोनों का एक ही है, अतः यह अर्थावृत्तिदीपक का उदाहरण है।) _ 'हे सुंदरि, तेरे मुख के द्वारा पराजित चन्द्रमा मेघ में छिप रहा है, साथ ही तेरे मुख के द्वारा पराजित कमल भी जलसमूह में छिप रहा है। (यहाँ कमल तथा चन्द्रमा दोनों के साथ निलीन होना रूप समानधर्म वर्णित है। इसके लिए कवि ने एक ही अर्थ में उसी पद (निलीयते) का दो बार प्रयोग किया है, अतः यह उभयावृत्तिदीपक का उदाहरण है।) ___ आवृत्तिदीपक में दीपकसामान्य की भाँति कोई ऐसा नियम नहीं है कि यह वहीं होता हो; जहाँ प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत पदार्थों का धमक्य पाया जाता हो, यहाँ तो प्रस्तुत या अप्रस्तुत दोनों तरह के पदार्थों का ऐच्छिक निबंधन पाया जाता है, (उदाहरण के लिए 'उत्कण्ठयति मेघानाम्' तथा 'शमयति जलधारा' इन दोनों पद्यों में वर्षाकाल के वर्णन में दोनों पदार्थ प्रस्तुत हैं, जबकि 'वदनेन निर्जितम्' में चन्द्रबिंब तथा कमल दोनों अप्रस्तुत हैं-इस प्रकार आवृत्तिदीपक के उदाहरणों से स्पष्ट है कि यहाँ वैसा कोई नियम नहीं पाया जाता जैसा तुल्ययोगिता तथा दीपक में पाया जाता है) इतना होने पर भी दीपक के साहश्यमात्र के कारण इसे भी दीपक (आवृत्तिदीपक) की संज्ञा दे दी गई है। १७. प्रतिवस्तूपमालंकार ५१-जहाँ उपमान वाक्य तथा उपमेय वाक्य में एक ही समानधर्म पृथक्-पृथक्
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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