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________________ कुवलयानन्दः अत्र वृश्चति-सिञ्चति-अर्चति इत्यध्याहारेण वाक्यानि पूरणीयानि | पूर्वोदाहरणं स्तुतिपर्यवसायि, इदं तु निन्दापर्यवसायीति भेदः । इयं सरस्वतीकण्ठाभरणोक्ता तुल्ययोगिता ॥ ४६ ।। गुणोत्कृष्टैः समीकृत्य वचोऽन्या तुल्ययोगिता । लोकपालो यमः पाशी श्रीदः शको भवानपि ॥ ४७॥ (यहाँ नीम को काटने वाले, सींचने वाले तथा पूजा करने वाले सभी तरह के लोगों के साथ एक सा ही व्यवहार पाया जाता है।) इस पद्य में 'वृश्चति, सिञ्चति तथा अर्चति' (काटता है, सींचता है, पूजा करता है) इन क्रियाओं का अध्याहार करके तत्तत् वाक्यों को पूर्ण बनाना होगा। इन दोनों उदाहरणों में कारिकार्ध वाला उदाहरण स्तुति ( राजा की स्तुति) में पर्यवसित होता है, दूसरा उदाहरण नीम की निंदा में पर्यवसित हो रहा है । तुल्ययोगिता का यह भेद भोजदेव के सरस्वतीकंठाभरण में निर्दिष्ट है, अतः तदनुसार ही वर्णित किया गया है। टिप्पणी-तुल्ययोगिता के इन भेदों के विषय में चन्द्रिकाकार ने एक शंका उठाकर उसका समाधान किया है । अत्र केचिदाहुः-नेयं तुल्ययोगिता पूर्वोक्ततुल्ययोगितातो भेदमर्हति । 'वानामितरेषां वा' इत्यादि पूर्वोक्तलक्षणाक्रान्तत्वात् । एकानुपूर्वीबोधितवस्तुकर्मकदानमात्रत्वस्य परम्परया तादृशशब्दस्य वा धर्मस्यैक्यात् । 'यश्च निम्बम्'इत्यत्रापि कटुत्वविशिष्ट निम्बस्यैव परम्परया छेदक-सेचक-पूजकत्वधर्मसंभवात् , इति तदेतदपेशलम् । तथा हियत्रानेकान्वयित्वेन ज्ञातो धर्मस्तेषामौपम्यगमकत्वेन चमत्कृतिजनकस्तत्र पूर्वोक्तप्रकारः, यत्र तु हिताहितोभयविषयशुभाशुभरूपैकव्यवहारस्य व्यवहर्तृगतस्तुतिनिन्दान्यतरद्योतकतया चमत्कृतिजनकत्वं तत्रापर इति भेदात् । नत्वत्र 'पराभूति'शब्दस्य तदर्थकर्मदानस्य वा परम्परया शत्रमित्रत्वेन भानम, अपितु श्लेषबलादेकत्वेनाध्यवसितस्य तादृशदानस्य राजगतत्वेनैवेति कथं पूर्वोक्तलक्षणाक्रान्तत्वम् ? एतेन 'यश्च निम्बम्'इत्यत्र कटुत्वविशिष्टनिम्ब. स्यैव परम्परया छेदक-सेवक-पूजकधर्मस्वमिति निरस्तम् । वस्तुगत्या तद्धर्मत्वस्यालंकारतासम्पादकत्वाभावात् । अन्यथा 'संकुचन्ति सरोजानि' इत्येतावतैव तुल्ययोगितालंकारा. पत्तेः। किं त्वनेकगतत्वेन ज्ञायमानधर्मत्वस्यैवतुल्ययोगिताप्रयोजकत्वमिति तदभावे तदन्त. र्गतकथनमसमंजसमेव । अथाप्युक्तोदाहरणयोस्तथा भानमस्तीत्याग्रहः, तथापि न पूर्वोक्तलक्षणस्यात्र सम्भवः । 'धमोऽर्थ इव पूर्णश्रीस्त्वयि राजन्, विराजते' इति प्रकृतयोरुपमायामतिव्याप्तिवारणार्थमने कानुगतधर्मवपर्याप्तविषयितासंबन्धावच्छिन्नावच्छेदकताकचमत्कृतिजनकताश्रयज्ञानविषयधर्मस्वमिति विवक्षायास्तत्रावश्यकत्वात्, प्रकृते च हितस्वाहितत्वादेविषयस्याधिकस्यानुप्रवेशादिति विभावनीयम्।' (चन्द्रिका पृ० ५०) ४७-जहाँ श्रेष्ठ गुणों वाले पदार्थों के साथ साम्यविवक्षा कर वचन का प्रतिपादन किया जाय, वहाँ तुल्ययोगिता का इतर भेद होता है। जैसे, हे राजन्, यमराज, वरुण, कुबेर (श्रीद), इन्द्र और आप भी लोकपाल हैं। टिप्पणी-सरस्वतीकंठाभरण में इस तुल्ययोगिता का लक्षण यों दिया है : विवक्षितगुणोत्कृष्टैर्यत्समीकृत्य कस्यचित् । कीर्तनं स्तुतिनिन्दाथ सा मता तुल्ययोगिता ॥ ___ कुवलयानन्द. के निर्णयसागर वलयानन्द.के निर्णयसागर संस्करण के सम्पादक ने गलती से इस लक्षण को ४६ वों कारिका वाले तुल्ययोगिता भेद की पादटिप्पणी में दिया है। यद्यपि दीक्षित ने 'इयं सरस्वतीकण्ठाभरणोक्का
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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