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________________ तुल्ययोगितालङ्कारः नागेन्द्रहस्तास्त्वचि कर्कशत्वादेकान्तशैत्यात् कदलीविशेषाः । __ लब्ध्वापि लोके परिणाहि रूपं जातास्तदूर्वोरुपमानबाह्याः ।। अत्र ग्रीष्मवर्णने तदीयत्वेन प्रस्तुतानां दिनानां पद्मानां चैकक्रियान्वयः । ऊरुवर्णनेऽप्रस्तुतानां करिकराणां कदलीविशेषाणां चैकगुणान्वयः ।। ४४-४५।। हिताहिते वृत्तितौल्यमपरा तुल्ययोगिता । प्रदीयते पराभूतिर्मित्रशात्रवयोस्त्वया ॥ ४६॥ अत्र हिताऽहितयोर्मित्रं-शात्रवयोरुत्कृष्टभूतिदानस्य पराभवदानस्य च श्ले. षेणाभेदाध्यवसायाद् वृत्तितौल्यम् । यथा वा यश्च निम्बं परशुना, यश्चैनं मधुसर्पिषा । यश्चैनं गन्धमाल्याद्यैः सर्वस्य कटुरेव सः ॥ पार्वती के ऊत्युगल का वर्णन है । श्रेष्ठ हाथियों की सैंड में यह दोष है कि उनकी चमड़ी बड़ी खुरदरी है (जब कि पार्वती के ऊरुयुगल की चमड़ी बहुत चिकनी व मुलायम है), कदली में यह दोष है कि वह सदा शीतल रहती है (जब कि पार्वती का ऊरुयुगल कभी उग रहता है, तो कभी शीतल) इसलिए विशाल रूप को प्राप्त करने पर भी ये दोनों पदार्थ पार्वती के जरुयुगल की उपमान-कोटि से गहर निकाल दिये गये हैं। - यहाँ पार्वती के ऊरुवर्णन में हाथी के शुण्डादण्ड नथा कदलियों का उपादान अप्रस्तुत के रूप में किया गया है, यहाँ इन अप्रस्तुतों में 'पार्वती के उपमान से बाह्य हो जाना' (तदूरूपमानबाह्यत्व) रूप गुण का एकधर्माभिसंबंध वर्णित किया गया है। यह अप्रस्तुत नुल्ययोगिता का उदाहरण है। ___४६-जहाँ हित तथा अहित, मित्र तथा शत्र के प्रति समान व्यवहार (वृत्तितौल्य, व्यवहार-साम्य) वर्णित किया जाय, वहाँ तुल्ययोगिता का दूसरा भेद होता है। जैसे, हे राजन्, तुम मित्र तथा शत्रु दोनों के लिए पराभूति [ मित्र-पक्ष में, अतुलनीय उत्कृष्ट विभूति (संपत्ति); शत्रुपक्ष में पराभूति (पराजय)] प्रदान करते हो। यहाँ मित्र तथा शत्रु दोनों के प्रति राजा पराभूनि का दान करता है। यहाँ पराभूति शब्द के द्वारा श्लेष से तत्तत् पक्ष में उत्कृष्ट भूतिदान तथा पराभवदान अभिप्रेत है। यह दान श्लेष के अभेदाध्यवसाय के कारण भिन्न होते हुए भी अभिन्न वर्णित किया गया है। अतः हित तथा अहित दोनों के साथ एक सा बर्ताव (वृत्तितौल्य) पाये जाने के कारण यहाँ तुल्ययोगिता का अपर भेद पाया जाता है। टिप्पगो-डितराज जगन्नाथ ने इसे अलग तुल्ययोगिता मानने का विरोध किया है, क्योंकि इसके अलग से लक्षण मानने की कोई जरूरत नहीं। यह भी ‘वानामितरेषां वा धर्मैक्यं तुल्ययोगिता' वाले लक्षण में समाहित हो जाती है। "एतेन-'हिताहिते'समा' इत्यादिना तुल्ययोगितायाः प्रकारान्तरं यत्कुवलयानन्दकृता लक्षितमुदाहृतंच तत्परास्तम् । अस्या अपि 'वानामितरेषां वा धर्मक्यं तुल्ययोगिता।' इति पूर्वलक्षणाक्रान्तत्वात् ।' ( रसगंगाधर पृ. ४२६) अथवा जैसे__ जो नीम को फरसे से काटता है, जो इसे शहद और घी से सींचता है, जो इसकी गंध-मालादि से पूजा करता है, उन सभी के लिए यह नीम का पेड़ कड़वा ही रहता है।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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