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________________ ५६ कुवलयानन्दः मालतीशश भुल्लेखा कदलीनां कठोरता ॥ ४५ ॥ प्रस्तुतानाम स्तुतानां वा गुणक्रियारूपैकधर्मान्वयस्तुल्ययोगिता | संकुचन्तीति प्रस्तुततुल्ययोगिताया उदाहरणम् । तत्र प्रस्तुत चन्द्रोदय कार्यतया वर्णनीयानां सरोजानां प्रकाशभीरुस्वैरिणीवदनानां च संकोचरूपैक क्रियान्वयो दर्शितः । उत्तरश्लोके नायिका सौकुमार्यवर्णने प्रस्तुतेऽप्रस्तुतानां मालत्यादीनां कठोरतारूपैकगुणान्वयः । यथा वा संजातपत्रप्रकरान्वितानि समुद्वहन्ति स्फुटपाटल त्वम् | विकस्वराण्यर्क कराभिमर्शाद्दिनानि पद्मानि च वृद्धिमीयुः ॥ ४५ - कोई प्रिय प्रेयसी से कह रहा है- 'हे प्रिये, तुम्हारे अङ्गों की कोमलता देखने पर ऐसा कौन होगा, जो मालती, चन्द्रकला तथा कदली में कठोरता का अनुभव न करे ।' ( यहाँ मालत्यादि अप्रस्तुतों का कठोरता धर्म के कारण एकधर्माभिसंबंध पाया जाता है। जहाँ प्रस्तुत या अप्रस्तुतों का गुणक्रियारूप एकधर्माभिसंबंध ( एकधर्मान्वय ) हो, वहाँ तुल्ययोगिता होती है । 'संकुचन्ति' इत्यादि पद्यार्ध प्रस्तुत तुल्ययोगिता का उदाहरण है । वहाँ प्रस्तुत चन्द्रोदय के कार्यरूप में प्रस्तुतरूप में वर्णनीय कमलों तथा प्रकाश से डरी हुई कुलिटाओं के मुखों में संकोचरूप एक ही क्रिया का संबंध वर्णित किया गया है । दसरे श्लोक में नायिका की सुकुमारता के वर्णन में मालती आदि पदार्थों का वर्णन अप्रस्तुत है । इन अप्रस्तुत पदार्थों में कठोरतारूप गुण का संबंध वर्णित किया गया है । ( अतः यह अप्रस्तुत तुल्ययोगिता का उदाहरण है । ) टिप्पणी- पंडितराज जगन्नाथ ने दीक्षित के तुल्ययोगिता के लक्षण में प्रयुक्त 'गुणक्रियारूपैकधर्मान्वयः' पद में दोष बताया है कि वह संकुचित लक्षण है । दीक्षित का लक्षण रुय्यक के मतानुसार है | पंडितराज दोनो का खंडन करते कहते हैं कि तुल्ययोगिता में गुण तथा क्रिया के अतिरिक्त अभावादि धर्मों का अन्वय भी हो सकता है, अतः लक्षण में 'गुणक्रियादिरूपैकधर्मान्वयः' का प्रयोग करना आवश्यक है, जैसा कि हमने किया है । रुय्यक तथा अप्पय दीक्षित के लक्षण के अनुसार तो निम्न पद्य में तुल्ययोगिता न हो सकेगीशासति त्वयि हे राजन्नखण्डावनिमण्डनम् । - न मनागपि निश्चिन्ते मण्डले शत्रुमित्रयोः ॥ यहाँ शत्रु तथा मित्र रूप पदार्थों में 'चिन्ताभाव' ( निश्चिन्ते ) रूप एकधर्मान्वय पाया जाता है, जो गुण या क्रिया में से अन्यतर नहीं है । अतः इसका समावेश करने के लिए हमें 'आदि' पद का प्रयोग करना उचित है। ( दे. रसगंगाधर पृ. ४२५-२६ ) इन्हीं के क्रमशः दो उदाहरण देते हैं। -- ग्रीष्म ऋतु का वर्णन है । ( पुराने पत्तों के वसंत में झड़ जाने के कारण ) नये पत्तों समूह से युक्त, प्रफुल्लित पाटल के वृक्ष वाले तथा सूर्य की किरणों से देदीप्यमान दिन तथा नये पत्तों वाले, विकसित एवं लाल रंग वाले तथा सूर्य की किरणों के सम्पर्क से विकसित कमल दोनों ही वृद्धि को प्राप्त हो गये । यहाँ ग्रीष्म का वर्णन अभिप्रेत है, उसके अङ्गभूत होने के कारण दिवस तथा पद्मों का वर्णन भी प्रस्तुत है, इन दोनों प्रस्तुतों के साथ 'वृद्धिमीयुः' का प्रयोग कर वर्द्धन क्रियारूप एकधर्म का संबंध वर्णित किया गया है, अतः यहाँ प्रस्तुत तुल्ययोगिता है ।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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