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________________ दीपकालङ्कारः ५६ अत्र वर्णनीयो राजा शक्रादिभिर्लोकपालत्वेन समीकृतः । यथा वा___संगतानि मृगाक्षीणां तडिद्विलसितान्यपि । क्षणद्वयं न तिष्ठन्ति घनारब्धान्यपि स्वयम् ।। पूर्वत्र स्तुतिः, इह तु निन्दा। इयं काव्यादर्श दर्शिता | इमां तुल्ययोगितां सिद्धिरिति केचिद्ध्यवजह्वः। यदाह जयदेवः सिद्धिः ख्यातेषु चेन्नाम कीयते तुल्यतोक्तये । युवामेवेह विख्यातौ त्वं बलैजाधर्जलैः॥ इति | मतान्तरेष्वत्र वक्ष्यमाणं दीपकमेव ।। ४७ ।। १५. दीपकालङ्कारः वदन्ति वयोवानां धर्मेक्यं दीपकं बुधाः । मदेन भाति कलभः प्रतापेन महीपतिः ॥ ४८ ॥ तुल्ययोगिता? यह वृत्ति ४६ वीं कारिका में ही दी है, तथापि प्रस्तुत लक्षण ४७ वीं कारिका वाले तुल्ययोगिता के लक्षण से मेल खाता है-यह सुधियों के द्वारा विचारणीय है । __ यहाँ वर्णनीय राजा को लोकपालत्व के आधार पर शक्रादि के समान बताया गया है। अथवा जैसे हिरनों के नेत्रों के समान नेत्रवाली सुन्दरियों की आरम्भ में अत्यधिक निबिड संगति तथा मेघों के द्वारा आरब्ध बिजली की चमक, दोनों ही दो क्षण भी नहीं ठहरतीं। . ___ इस तुल्ययोगिता भेद के उदाहरणों में प्रथम उदाहरण में राजा की स्तुति अभिप्रेत है, जब कि द्वितीय उदाहरण में स्त्रियों के प्रेम तथा बिजली की चमक की क्षणिकता बताकर उनकी निंदा अभिप्रेत है। दण्डी ने काव्यादर्श में इस तुल्ययोगिता भेद को दर्शाया है। कुछ विद्वान् इसी तुल्ययोगिता को सिद्धि भी कहते हैं। जैसा कि चन्द्रालोककार जयदेव ने बताया है:___'जहाँ प्रसिद्ध पदार्थों में तुल्यता बताने के लिए उनका वर्णन किया जाय, वहाँ सिद्धि नामक अलंकार होता है । हे राजन् , आप दोनों ही इस संसार में प्रसिद्ध हैं, आप बल के कारण और समुद्र जल के कारण।' ____ दूसरे आलंकारिकों के मत से यहाँ वक्ष्यमाण दीपक अलंकार ही पाया जाता है, क्योंकि यहाँ अप्रस्तुत तथा प्रस्तुत के धर्मैक्य का वर्णन पाया जाता है। १५. दीपक अलंकार ४४-विद्वान् लोग दीपक उसे कहते हैं, जहाँ वर्ण्य (प्रस्तुत) तथा अवये (अप्रस्तुत) का धमक्य (एकधर्माभिसम्बन्ध) वर्णित किया जाता है। जैसे, हाथी मद से सुशोभित होता है, और राजा प्रताप से सुशोभित होता है। टिप्पणी-चन्द्रिकाकार ने दीपक का लक्षण यों दिया है-वर्ध्यावान्वितैकचमत्कारिधर्मो दीपकम् । यहाँ लक्षणकार ने सादृश्य' शब्द का प्रयोग न कर उपमा का वारण किया है तथा 'वर्ध्यावान्वित' के द्वारा तुल्ययोगिता का वारण किया है, क्योंकि वहाँ 'वर्ण्य या अवर्ण्य में से अन्यतर का एकधर्माभिसम्बन्ध पाया जाता है।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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