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________________ अपहत्यलङ्कारः यथा वा अङ्कं केऽपि शशदिरे, जलनिधेः पy परे मेनिरे, सारङ्ग कतिचिच्च संजगदिरे, भूच्छायमैच्छन् परे । इन्दौ यदलितेन्द्रनीलशकलश्यामं दरीदृश्यते तत्सान्द्रनिशि पीतमन्धतमसंकुक्षिस्थमाचक्ष्महे ।। अत्रौत्प्रेक्षिकधर्माणामप्यपह्नवः परपक्षत्वोपन्यासादर्थसिद्धः ।। २६ ।। स एव युक्तिपूर्वश्चेदुच्यते हेत्वपहुतिः। नेन्दुस्तीब्रो न निश्यर्कः, सिन्धोरौर्वोऽयमुत्थितः ॥ २७॥ अत्र चन्द्र एव तीव्रत्व-नैशत्वयुक्तिभ्यां चन्द्रत्वसूर्यत्वापहवो वडवानलत्वारोपार्थः। यथा वा मन्थानभूमिधरमूलशिलासहस्र____ संघट्टनव्रणकिणः स्फुरतीन्दुमध्ये | छायामृगः शशक इत्यतिपामरोक्तिः स्तेषां कथंचिदपि तत्र हि न प्रसक्तिः ॥ चंद्र में आकाशगंगा के कमल से सम्बद्ध धर्म आकाशगंगासरोरुहत्व का आरोप करने के लिये चन्द्र के वास्तविक धर्म चन्द्रत्व का निषेध किया गया है। अतः यहाँ अपहृति का शुद्धावाला भेद है । इसी का अन्य उदाहरण निम्न है:-. - कुछ लोग चन्द्रमा के काले धब्बे को कलंक मानते हैं, तो कुछ लोग समुद्र का कीचड़, कुछ उसे हिरन बताते हैं, तो कुछ पृथ्वी की छाया। टूटे हुए इन्द्रनील मणि के टुकड़े के समान जो कालापन चन्द्रमा में दिखाई दे रहा है, वह हमारे मतानुसार तो चन्द्रमा के द्वारा रात में पीया हुआ सघन अन्धकार है, जो चन्द्रमा के पेट में जम गया है। यहाँ पद्य के पूर्वार्ध में वर्णित तत्तत् धर्म कविकल्पित हैं तथा उनका निषेध पाया जाता है। कारिका के उत्तरार्ध वाले उदाहरण तथा इममें यह भेद है कि वहाँ कवि ने निषेध स्पष्टतः किया है अर्थात् वहाँ शाब्दी अपहुति पाई जाती है, जब कि यहाँ कवि ने तत्तत् उत्प्रेक्षित धर्म का निषेध शब्दतः नहीं किया है, केवल उन मतों को अन्यसम्मत बताकर उनका अर्थसिद्ध निषेध किया है । अतः यहाँ आर्थी अपहृति है। २७-यही शुद्ध अपहृति जब युक्तिपूर्वक हो, तो वह हेत्वपह्नति कहलाती है। जैसे कोई विरहिणी चन्द्रमा की जलन का अनुभव कर कह रही है-यह चन्द्रमा तो नहीं है, क्योंकि यह तीव्र (जलन करने वाला) है, यह सूर्य भी नहीं है, क्योंकि रात में सूर्य नहीं होता; यह तो समुद्र की बडवाग्नि जल रही है। यहाँ तीव्रता तथा रात्रिसंबद्धता इन दो हेतुओं को देकर वास्तविक चन्द्र के संबंध में चन्द्रत्व तथा उत्प्रेक्षित सूर्यत्व रूप धर्मों का निषेध इसलिए किया गया है कि उस पर वडवानल का आरोप हो सके, अतः यह हेत्वपहुति है। इसका दूसरा उदाहरण यह है: चन्द्रमा में जो काला धब्बा दिखाई देता है, वह मन्दराचल पर्वत की जड़ की हजारों . शिलाओं से टकराने से उत्पन्न घाव का धब्बा है। मूर्ख लोग इसे पृथ्वी की छाया, मृग, शशक आदि कहते हैं, भला चन्द्रमा में हिरन और खरगोश कहाँ से आये।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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