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________________ कुवलयानन्दः अत्रान्योन्यविषयभ्रान्तिनिबन्धनः पूर्वोदाहरणाद्विशेषः । जीवनग्रहणे नम्रा गृहीत्वा पुनरुन्नताः। किं कनिष्ठाः किमु ज्येष्ठा घटीयन्त्रस्य दुर्जनाः॥ पूर्वोदाहृतसंदेहः प्रसिद्धकोटिकः, अयंतु कल्पितकोटिक इति भेदः॥२४-२॥ ११ अपहृत्यलङ्कारः शुद्धापह्नतिरन्यस्यारोपार्थों धर्मनिवः । नायं सुधांशुः, किं तर्हि ? व्योमगङ्गासरोरुहम् ॥ २६ ॥ वर्णनीये वस्तुनि तत्सदृशधर्मारोपफलकस्तदीयधर्मनिह्नवः कविमतिविकासोत्प्रेक्षितधर्मान्तरस्यापि निह्नवः शुद्धापह्नुतिः । यथा चन्द्रे वियन्नदीपुण्डरीकत्वारोपफलकस्त दीयधर्मस्य चन्द्रत्वस्यापह्नवः । ___ यहाँ भौंरा तोते की चोंच को भ्रांति से पलाशमुकुल समझता है और तोता भौंरे को भ्रांति से जामुन का फल समझ रहा है, अतः भ्रांति या भ्रांतिमान् अलंकार है। इस उदाहरण में पहले वाले उदाहरण ('अयं प्रमत्तमधुपः' इत्यादि) से यह भेद है कि यहाँ प्रत्येक विषय (भौंरा व तोता) एक दूसरे के प्रति भ्रांति का प्रयोग करते हैं, अतः यहाँ अन्योन्यविषयभ्रांति का निबंधन किया गया है। संदेह का उदाहरण: दुष्ट लोग जीवन को लेने में नम्र हो जाते हैं तथा जीवन (प्राण) लेकर फिर से उद्धत हो जाते हैं (रहट भी पानी लेते समय झुक जाता है और पानी लेकर फिर ऊँचा चढ़ आता है)। दुर्जन लोग घटीयंत्र (रहट) से छोटे हैं, या बड़े हैं। __ यहाँ रहट से दुर्जनों के कनिष्ठ या ज्येष्ठ होने के संबंध में कोई निश्चित बात न बताकर संदेह वर्णित किया गया है, अतः संदेह अलंकार है। संदेह के पहले उदाहरण तथा इस उदाहरण.में यह भेद है कि पहले में मुख के विषय में 'कमल है या चन्द्रमा' यह कहना प्रसिद्ध कोटिक संदेह है, जब कि यहाँ दुर्जन के रहट से कनिष्ठत्व या ज्येष्ठत्व के विषय में ससंदेह होना कल्पना पर आधत है, अतः यह कल्पितकोटिक है । भाव यह है, प्रथम संदेह कविपरम्परा पर आरत है, दूसरा कविनिबद्ध प्रौढोक्ति पर । क्योंकि घटीयंत्र से बड़े छोटे होने की कोई प्रसिद्धि नहीं है। ११ अपह्नति अलंकार २६-अपह्नति अलंकार का प्रकरण उपन्यस्त करते समय सर्वप्रथम शुद्धापहृति का : लक्षण देते हैं। इसे ही जयदेव तथा अन्य आलंकारिक केवल अपह्नति कहते हैं। शुद्धापति वह अलंकार है, जहाँ अप्रकृत के आरोप के लिए प्रकृत का निषेध किया जाय अर्थात् जहाँ प्रकृत धर्म का गोपन (निव) कर अप्रकृत का उसपर आरोप हो। (यहाँ यह ध्यान में रखने की बात है कि रूपक में भी आरोप होता है, किंतु वहाँ निषेध. पूर्वक आरोप नहीं होता, अतः वह भिन्नकोटिक अलंकार है।) जैसे, यह चन्द्रमा नहीं है, तो फिर क्या है ? यह तो आकाशगंगा में खिला हुआ कमल है। जहाँ वर्णनीय वस्तु में तत्सदृश अप्रकृत वस्तु के धर्म का आरोप करने के लिए उसके वास्तविक धर्म का गोपन कर दिया जाय अथवा कविकल्पना के द्वारा उत्प्रेक्षित किसी ' अन्य धर्म का गोपन किया जाय वहाँ शुद्धापहति होती है। जैसे उपर्युक्त उदाहरण में
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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