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________________ १२ कुवलयानन्दः अत्युत्कृष्टगुणतया वय॑मानस्यान्यत्र स्वसादृश्यमसहमानस्योपमेयं किंचित्प्रदर्य तावता तस्य तिरस्कारो द्वितीयं प्रतीपं पूर्वस्मादपि विच्छित्तिविशेषशालि | यथा वा, ( रुद्रटालं० ) गर्वमसंवाह्यमिमं लोचनयुगलेन किं वहसि भद्रे ! । सन्तीदृशानि दिशि दिशि सरःसु ननु नीलनलिनानि ।। १२ ।। वोपमेयलाभेन तथान्यस्याप्यनादरः। का क्रौर्यदर्पस्ते मृत्यो ! त्वत्तुल्याः सन्ति हि स्त्रियः ॥१४॥ अत्युत्कृष्टगुणतया कचिदप्युपमानभावमसहमानस्यावर्ण्यस्य वोपमेयं परिकल्प्य तावता तस्य तिरस्कारः पूर्वप्रतीपवैपरीत्येन तृतीयं प्रतीपम् ।। यथा वा अहमेव गुरुः सुदारुणानामिति हालाहल ! तात ! मा स्म दृप्यः । अनादर किया जाय, वहां प्रतीप का दूसरा भेद होता है। जैसे हे मुख, तेरा गर्व व्यर्थ है, चन्द्रमा भी सुन्दरता में वैसा ही है (जैसे तुम)। यहां चन्द्रमा को उपमेय बनाकर वर्ण्य (मुख) का अनादर किया गया है। अपने अत्यधिक गुणों के कारण अपने समान किसी अन्य वस्तु को सहन नहीं करने वाले वर्ण्य विषय का उपमेय कुछ बताकर उसी के आधार पर उसका तिरस्कार जहाँ किया जाय वहाँ द्वितीय प्रतीप होता है। यह भेद प्रथम भेद से इस बात में बढ़कर है कि वहां वर्ण्य का तिरस्कार नहीं किया जाता, यहां वर्ण्य का तिरस्कार करने से प्रथम भेद से अधिक चमत्कार-प्रतीति होती है। अथवा जैसे, हे सुन्दरि, अपने नेत्रों से इस असह्य गर्व का वहन क्यों करती हो (इतना घमण्ड क्यों करती हो)? यह न समझो कि तुम्हारे नेत्रों के समान सुन्दर पदार्थ संसार में हैं ही नहीं। अरे, प्रत्येक दिशा में, सरोवरों में ठीक ऐसे ही सैकड़ों नील कमल विद्यमान हैं। __ यहां 'नेत्र' (वयं) के उपमेयत्त को कुछ वर्णित कर बाद में उसका तिरस्कार करने के लिए काव्य-वाक्य में प्रयुक्त बहुवचन (नलिनानि) के द्वारा वैसे ही अनेकों नील कमलों की सत्ता बताई गई है। कारिका भाग के उदाहरण में साधारण धर्म ( कान्त्या) का प्रयोग हुआ है, इस उदाहरण में नहीं। १४-जहां किसी ऐसे अवर्ण्य विषय को, जिसके अधिक गुणों के कारण वह कहीं भी उपमानभाव की स्थिति सहन नहीं करता, वर्ण्यविषय-सा बनाकर उसके उपमेयत्व की कल्पना की जाय और इस आधार पर उसका भी तिरस्कार किया जाय, तो वहां तोसरा प्रतीप होता है, जो दूसरे प्रतीप का उलटा है। जैसे हे मृत्यु, तुम अपनी करता पर घमण्ड क्यों करती हो, तुम्हारे समान कर स्त्रियाँ भी हैं। (दूसरे प्रतीप में उपमेय वय-विषय है, जब कि इस प्रतीप-भेद में उपमेय अवयं है, जिसकी उपमेयत्व-कल्पना कर ली जाती है। यहाँ अवर्ण्य विषय को सम्बोधित कर वर्ण्य (उपमान) की समानता बताकर उसका भी तिरस्कार अभीष्ट होता है।) जहां ऐसे अवर्ण्य (मृत्यु) को, जो अति उत्कृष्ट गुण होने के कारण कहीं भी उपमान भाव को सहन नहीं करता, वोपमेय बनाकर, इसी आधार पर उसका तिरस्कार किया जाय, वहां द्वितीय प्रतीप से उलटा होने के कारण तृतीय प्रतीप है । अथवा जैसे हे विष, तुम इस बात का घमण्ड न करो कि संसार में समस्त कठोर पदार्थों के गुरु
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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