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________________ प्रतीपालङ्कारः प्रसिद्धोपमानोपमेयभावः प्रातिलोम्यात्प्रतीपम् | यथा वा ११ ~3 यत्त्वन्नेत्रसमानकान्ति सलिले मग्नं तदिन्दीवरं मेघैरन्तरितः प्रिये ! तव मुखच्छायानुकारी शशी । येsपि त्वद्गमनानुसारिगत यस्ते राजहंसा गता स्त्वत्सादृश्यविनोदमात्रमपि मे दैवेन न क्षम्यते ॥ १२ ॥ अन्योपमेयलाभेन वर्ण्यस्यानादरथ तत् । अलं गर्वेण ते वस्त्र ! कान्त्या चन्द्रोऽपि तादृशः ॥ १३ ॥ जहाँ उपमान (पद्म) को उपमेय वना दिया जाय, तो उपमेय (मुख) स्वतः उपमान बन जायगा, ऐसी दशा में यह शंका उठना सम्भव है कि मुख आदि चन्द्र के उपमेय हैं, तो वे उपमान भी हो सकते हैं और इस प्रकार 'चन्द्र इव मुख' जैसे लक्ष्यों की तरह 'मुखमिव चन्द्र:' में भी उपमा ही माननी चाहिए। इस उदाहरण में उपमा की अतिव्याप्ति को रोकने के लिए ही वृत्ति भाग में 'प्रसिद्ध' पद का प्रयोग किया गया है । जहाँ प्रसिद्ध उपमान ( कमल चन्द्रादि ) को उपमेय बना दिया जाय, वहाँ प्रतीप अलङ्कार इसलिए माना जाता है कि कवि प्रसिद्ध उपमानोपमेय भाव को उलटा कर देता है । कवियों की परस्परा में यह प्रसिद्ध है कि नेत्र का उपमान कमल है और मुख का उपमान चन्द्रमा; पर कोई कवि विशेष चमत्कार उपस्थित कर देने के लिए कमल तथा चन्द्र प्रकृत होने पर कामिनी-नेत्रादि से उसकी तुलना करता है, इस प्रकार वह प्रख्यात परम्परा से प्रतिकूल (प्रतीप ) आचरण करता है । उदाहरण जैसे, हे प्रिये, वे नील कमल, जो तुम्हारे नेत्रों की शोभा के समान शोभा वाले हैं, जल में मग्न हो गये हैं, तुम्हारे मुख की सुन्दरता का अनुकरण करने वाला चन्द्रमा बादलों में छिप गया है; तुम्हारी गति का चाल में अनुसरण करने वाले वे राजहंस चले गये हैं । बड़े दुःख की बात है कि विधाता तुम्हारे सादृश्य से मेरे मन को बहलाने भी नहीं देता । इस उदाहरण में प्रसिद्ध उपमान - कमल, चन्द्रमा तथा हंस को उपमेय बना दिया गया है, तथा नेत्र, मुख और गति को उपमान । इस पद्य में कारिका के उत्तरार्ध वाले उदाहरण से यह भेद है कि वहां साधारण धर्म का उपादान नहीं हुआ है, जब कि इसमें 'कान्ति' आदि साधारण धर्म का प्रयोग किया गया है । इस सम्बन्ध में एक प्रश्न उठ सकता है कि उपमान से उपमेय की अधिकता वर्णित करने वाले व्यतिरेक से प्रतीप का क्या अन्तर है ? व्यतिरेक अलंकार में वैधर्म्य के द्वारा उपमेय के आधिक्य का संकेत किया जाता है, यहाँ (प्रतीप में ) भी कवि का अभीष्ट तो मुखादि का आधिक्य द्योतित करना ही है, पर उसे उपमान बनाकर साधर्म्य के द्वारा संकेतित किया जाता है । एक वैध - मूलक है, दूसरा साधर्म्यमूलक । इस पद्य में प्रतीप के अतिरिक्त काव्यलिंग अलंकार भी है । कान्ता के विरह से दुःखी नायक प्रियामुखादि के दर्शन के न होने पर भी उसके समान कमलादि को देखकर यह समझता है कि मैं इनसे ही कांतामुखादि जैसा आनंद उठा लूँगा, किंतु वर्षाकाल में उनका भी अभाव देखकर देव को उपालंभ देता है । इस. प्रकार यहां प्रथम तीन चरणों में चतुर्थ चरण का समर्थन पाया जाता है । इसके अतिरिक्त इसमें देव के प्रति असूया नामक भाव भी ध्वनित होता है । २३ - किसी अन्य पदार्थ ( उपमान ) को उपमेय बना कर जहां वर्ण्य विषय का
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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