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________________ प्रतीपालङ्कारः १३ ननु सन्ति भवादृशानि भूयो भुवनेऽस्मिन्वचनानि दुर्जनानाम् ॥ १४ ॥ वयेनान्यस्योपमाया अनिष्पत्तिवचश्च तत् । मुधापवादो मुग्धाक्षि ! त्वन्मुखाभं किलाम्बुजम् ॥ १५ ॥ अवर्ण्य वर्ण्योपमित्यनिष्पत्तिवचनं पूर्वेभ्य उत्कर्षशालि चतुर्थ प्रतीपम् । उदाहरणे मुधापवादत्वोक्त्योपमित्य निष्पत्तिरुद्धाटिता । यथा वा आकर्णय सरोजाक्षि ! वचनीयमिदं भुवि । शशाङ्कस्तव वक्त्रेण पामरैरुपमीयते ॥ १५ ॥ कैमर्थ्यमपि मन्वते । प्रतीपमुपमानस्य दृष्टं चेद्वदनं तस्याः किं पद्मेन किमिन्दुना ॥ १६ ॥ उपमेयस्यैवोपमानप्रयोजन धूर्व हत्वेनोपमान कै मर्थ्यमुपमानप्रातिलोम्यात् पञ्चमं प्रतीपम् । ( मूर्धन्य ) तुम्हीं हो। हे तात, इस संसार में तुम्हारे ही जैसे अति कठोर दुर्जनों के वचन विद्यमान हैं। यहाँ कवि को दुर्जनों के वचनों की कठोरता का वर्णन करना अभीष्ट है, यही वर्ण्य है, विष यहां अवर्ण्य है, किन्तु विच्छित्तिविशेष की सृष्टि के लिए कवि अवर्ण्य (विष) को उपमेय बना कर उसका वर्ण्य के ढंग से वर्णन करता है, तथा अभीष्ट विषय को उपमान बना देता है । इस प्रकार यहाँ कल्पित वर्थोपमेय का तिरस्कार किया गया है । १५ - जहां कोई अन्य पदार्थ वर्ण्य विषय ( उपमेय ) के समान है, इस बात को निष्प्रयोजन बताकर इसे झूठा घोषित किया जाय, वहां चौथा प्रतीप होता है । जैसे, हे सुन्दर आंखों वाली सुन्दरि ! यह बात बिलकुल झूठ है कि कमल तुम्हारे मुख के समान है । जहां अवर्ण्य ( कमल) वर्ण्य (मुख) के समान है, इस उक्ति को निष्प्रयोजन घोषित किया जाय, वहां पहले के तीन प्रतीपों से भी अधिक चमत्कार होता है; यह चौथा प्रतीप है । इस प्रतीप में उपमान ( कमल) का तिरस्कार करना कवि को अभीष्ट होता है । ऊपर के उदाहरण में 'मुधापवाद' शब्द के द्वारा उपमा की उक्ति को निष्प्रयोजन बताया गया है । अथवा जैसे हे सुन्दरि ( कमल के समान आँखों वाली ), सुनो, संसार में यह बात झूठी समझी जा रही है, तथा इसकी निन्दा हो रही है कि नीच लोग तुम्हारे मुख से चन्द्रमा की तुलना करते हैं । यहां 'चन्द्रमा की क्या बिसात कि तुम्हारे मुख के समान हो सके' यह भाव कवि का अभीष्ट है। यहां चन्द्रमा ( अवर्ण्य ) को मुख ( वर्ण्य) के समान बताकर फिर इस उक्ति की निष्प्रयोजकता घोषित की गई है। १६ - उपमान का कैमर्थ्य ( व्यर्थता ) बताने पर भी प्रतीप अलङ्कार माना जाता है, जैसे यदि उस नायिका का मुख देख लिया, तो फिर कमल से क्या मतलब और चन्द्रमा से क्या लाभ ? इस सम्बन्ध में यह शंका हो सकती है कि पद्म, चन्द्रादि उपमान आह्लाददायक
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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