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________________ कुवलयानन्दः भेदाध्यवसायाच्च साधारणधर्मतेति पूर्वस्माद्विशेषः । वस्तुतो भिन्नयोरप्युपमानोपमेयधर्मयोः परस्परसादृश्यादभिन्नयोः पृथगुपादानं बिम्बप्रतिबिम्बभाव इत्या. लङ्कारिकसमयः॥६॥ वोपमानधर्माणामुपमावाचकस्य च । एकद्विव्यनुपादानैभिन्ना लुप्तोपमाष्टधा ॥ ७॥ स्थापन (अभेदाध्यवसाय) कर दिया है। अतः उनमें साधारणधर्मत्व बन गया है। इस प्रकार पहले उदाहरण में एक ही साधारण धर्म था, यहाँ भिन्न-भिन्न साधारण धर्म में अभेद स्थापना कर दी गई है, दोनों साधारण धर्मों में यह अन्तर है। जहाँ उप. मान तथा उपमेय के उन साधारण धर्मों को,जो वस्तुतः एक दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं और जिन्हें परस्पर सादृश्य के कारण अभिन्न मान लिया जाता है, काव्य में अलग-अलग प्रयुक्त किया जाता है, तो वहां बिंबप्रतिबिंबभाव होता है, यह आलङ्कारिकों की मान्यता है। टिप्पणी-स सम्बन्ध में कुवलयानन्द के टीकाकार गङ्गाधर वाजपेयी ने अपनी रसिकरंजनी में विशेष विचार किया है। वे बताते हैं कि बिंबप्रतिबिंबभाव वहीं होगा, जहाँ धर्म का पृथक् पृथक् उपादान हो, अर्थात् धर्मलुप्ता में बिंबप्रतिबिंबभाव नहीं माना जायगा। इसीलिए निम्न 'मलय इव जगति पाण्डुः' आदि पद्य में धर्मलोप होने के कारण चन्दनद्रुमादि तथा पाण्डवादि में विवप्रतिबिंबभाव नहीं है, जब कि 'पाण्ड्योयमंसार्पित' इत्यादि पद्य में हरिचन्दनादि तथा बालातपादि में अरुणिमादि के सादृश्य के कारण बिजप्रतिबिंबभाव घटित हो ही जाता है। भूमिका में हम बता चुके हैं कि इस मत को पण्डितराज जगन्नाथ नहीं मानते। ___ अत एव धर्मलुप्तायामनुगामिताप्रयुक्तमेव धर्मस्य साधारण्यं न बिंबप्रतिबिंबभावकृतमपीति 'मलय इव जगति पाण्डः वल्मीकसमो नृपोऽम्बिकातनयः। जम्बूनदीव कुन्ती गान्धारी सा हलाहलेव सरित्॥' इत्यादौ चन्दनद्रुमाणां पाण्डवानां उरगाणां धार्तराष्ट्राणां जाम्बूनदगरलादीनां च न बिंबप्रतिबिंबभावेन साधारणधर्मता। जगदाहादधर्मवत्त्वस्य (तदुद्वेजकध. विश्वस्य च) मलयपाण्डवाद्युपमानोपमेयानुगतस्य धर्मस्यानुपादानात् धर्मलोप इति नात्र बिंबप्रतिबिंबभावः । न च चन्दनद्रुमपाण्डवादीनां जगदाह्लादकत्वादिकृतसादृश्येन अभेदाध्यवसायात् बिंबप्रतिबिंबभावेन साधारण्यं किं न स्यादिति वाच्यम् । 'पाण्ड्योऽयमंसार्पित. लम्बहारः क्लुप्तांगरागो हरिचन्दनेन । आभाति बालातपरक्तसानुः सनिझरोद्गार इवादिराजः।' इति बिंबप्रतिबिंबभावकृतसाधारणधर्मनिर्देशस्थले शब्दोपात्तानां हरिचन्दनबालातपादीनामेव अरुणिमादिकृतसादृश्यमादाय बिंबप्रतिबिंबभावेन साधारणधर्मत्वसम्भवेन, तमादाय उपमानिर्वाहात् न अनुगामिधर्मकल्पनया तनिर्वाहक्लेशः समाश्रयणीय इति तत्र बिंबप्रतिबिंबभावसंभवेऽपि अत्र चन्दनद्रुमपाण्डवादीनां न शब्देन उपादानमस्ति । येन बिंबप्रतिबिंबभावप्रयोजकसादृश्यगवेषणया साधारण्यमध्यवसीयेत । न च मुख्य सम्भवति अमुख्यकल्पनं न्याय्यमिति जगदाहादकारिधर्मवत्वस्यानुगामिन एव धर्मस्यानुपादानमिति शब्दोपादाननिबन्धनबिंबप्रतिबिंबभावादेधर्मलुप्तायामसम्भवात् न पूर्णायामिव धर्मलुप्तायां बिंबप्रतिबिंबभावादिति । अनेनैवाभिप्रायेण लुप्तायां तु नैवं भेदाः।' रसिकरअनीटी का पृ० १४-१५ ( कुम्भकोणम् से प्रकाशित ) ___ ७, ८, ९-उपमेय, उपमान, साधारणधर्म और उपमावाचक शब्द इन चार तत्वों में से एक, दो या तीन तत्त्वों का लोप होने से उपमा का प्रत्येक भेद दूसरे से भिन्न होता है। यह लुप्तोपमा आठ तरह की होती है। वाचकलुप्ता, धर्मलुप्ता, धर्मवाचकलुप्ता, वाचकोप
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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