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________________ उपमालङ्कारः तडिद्गौरीन्दुतुल्यास्या कर्पूरन्ती दृशोर्मम । कान्त्या स्मरवधूयन्ती दृष्टा तन्वी रहो मया ॥ ८ ॥ यत्तया मेलनं तत्र लाभो मे यश्च तद्रतेः। तदेतत्काकतालीयमवितर्कितसंभवम् ॥९॥ उपमेयादीनां चतुर्णा मध्ये एकस्य द्वयोस्त्रयाणां वा प्रतिपादकशब्दाभावेन लुप्तोपमेत्युच्यते । सा चाष्टधा | यथा-वाचकलुप्ता १, धर्मलुप्ता २, धर्मवाचकलुप्रा ३, वाचकोपमेयलुपा ४, उपमानलुमा ५, वाचकोपमानलुप्ता ६, धर्मोपमानलुमा ७, धर्मोपमानवाचकलुपा च ८, इति । तत्रोपमानलोपरहिताश्चत्वारो भेदाः 'तडिद्गौरी-' इत्यादिश्लों केन प्रदर्शिताः । तद्वन्तो भेदा उत्तरश्लोकेन दर्शिताः। तत्र 'तडिद्गीरी' इत्यत्र वाचकलोपस्तडिदिव गौरीत्यर्थे 'उपमानानि सामान्यवचनैः' (पा. २।१।५५) इति समासविधायकशास्त्रकृतः । 'इन्दुतुल्यास्या' इत्यत्र धर्मलोपः, स त्वैच्छिको न शास्त्रकृतः; कान्त्या इन्दुतुल्यास्येत्यपि वक्तुं मेयलुप्ता, उपमानलुप्ता, वाचकोपमानलुप्ता, धर्मोपमानलुप्ता और धर्मोपमानवाचकलुप्ता। इन्हीं के उदाहरण ये हैं: 'मैंने बिजली के समान गौरवर्ण की, चन्द्र के समान आह्लाददायक मुख वाली मेरे नेत्रों में कपूर की शीतलता को उत्पन्न करती उस सुन्दरी को एकान्त में देखा, जो अपनी कांति से रति के समान आचरण कर रही थी। उस एकान्तस्थल में उसके साथ मिलन या उसके प्रेम का लाभ मेरे लिए काकतालीय था. जिसकी सम्भावना के सम्बन्ध में तर्क भी नहीं हो सकता था। उस नायिका का एकान्त में मिलना और रतिदान देना मेरे लिए ठीक वैसे ही अकस्मात् हुआ, जैसे कौआ अकस्मात् किसी पके ताल के फल पर आ बैठे और वह फल, अपने आप (कौए के बोझ से नहीं), गिर पड़े। यहाँ कौए का आना और ताल-फल का गिरना नायक-नायिका-समागम रूप उपमेय का उपमान है, और कौए के द्वारा पतित फल का उपभोग, नायिकोपभोग रूप उपमेय का उपमान है। उपमेय, उपमान, साधारणधर्म और वाचक शब्द इन चारों तवों में से किसी भी एक, दो या तीन का लोप होने पर लुप्तोपमा कहलाती है। यह लुप्तोपमा आठ तरह की होती है। जैसे-१. वाचकलुप्ता, २. धर्मलुप्ता, ३. धर्मवाचकलुप्ता, ४. वाचकोपमेय. लुप्ता, ५. उपमानलुप्ता, ६. वाचकोपमानलुप्ता, ७. धर्मोपमानलुप्ता और ८. धर्मोपमानवाचकलुप्ता। इन आठ भेदों में प्रथम श्लोक 'तडिद्गौरी' आदि में उपमानलोपरहित चार भेदों को उदाहृत किया गया है। उपमानलोप वाले चार भेदों के उदाहरण कारिका के बाद के श्लोक में प्रदर्शित किये गये हैं। -वाचकलुप्ता :-'तडिद्गौरी' इस उदाहरण में वाचक शब्द का लोप है । यहाँ तडित् के समान गौरी' (बिजली के समान गौरवर्ण वाली नायिका) तडिदौरी इस समस्त पद में पाणिनि के सूत्र 'उपमानानि सामान्यवचनैः' (२११५५) के अनुसार शास्त्रप्रयुक्त प्रणाली पाई जाती है। यहाँ तडित्' उपमान 'गौरी' साधारणधर्म और उपमेय तीनों विद्यमान हैं । इवादि वाचक शब्द का अभाव है। २-धर्मलुप्ता :-'इन्दुतुल्यास्या' चन्द्रमा के समान मुखवाली इस उदाहरण में साधारण
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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