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________________ उपमालङ्कारः च पूर्णोपमेत्युच्यते । हंसी कीर्तिः स्वर्गङ्गावगाहनमिवशब्दश्चेत्येतेषामुपमानोपमेयसाधारणधर्मोपमावाचकानां चतुर्णामप्युपादानात् । यथा वा 'गुणदोषौ बुधो गृह्णन्निन्दुक्ष्वेडाविवेश्वरः । शिरसा श्लाघते पूर्व परं कण्ठे नियच्छति ।।' अत्र यद्यप्युपमानोपमेययोनॆकः साधारणो धर्मः। उपमाने ईश्वरे चन्द्रगरलयोर्ग्रहणमुपादानं तयोर्मध्ये पूर्वस्य चन्द्रस्य शिरसा श्लाघनं वहनमुत्तरस्य गर. लस्य कण्ठे नियमनं संस्थापनम्, उपमेये बुधे गुणदोषयोग्रहणं ज्ञानं तयोर्मध्ये पूर्वस्य गुणस्य शिरसा श्लाघनं शिरःकम्पेनाभिनन्दनमुत्तरस्य दोषस्य कण्ठे नियमनं कण्ठादुपरि वाचानुद्धाटनमिति भेदात् । तथापि चन्द्रगरलयोर्गुणदोषयोश्च बिम्बप्रतिबिम्बभावेनाभेदादुपादानज्ञानादीनां गृह्णन्नित्येकशब्दोपादानेनासादृश्य स्पष्ट वाच्यरूप में प्रकट हो, व्यंग्यरूप में प्रतीयमान नहीं। सादृश्य के व्यंग्यरूप में प्रतीयमान होने पर उपमा अलङ्कार नहीं होगा, वहाँ या तो अलङ्कारान्तर की प्राप्ति होगी या फिर वनिकाव्य होगा। उपमा का उदाहरण ऊपर की कारिका में 'हंसीव..." आदि उत्तरार्ध में उपन्यस्त किया गया है। उपर्युक्त उदाहरण में पूर्णोपमा है। पूर्णोपमा में उपमा के चारों तत्व, उपमान, उपमेय, साधारणधर्म तथा वाचक शब्द का प्रयोग किया जाता है। यहाँ भी हंसी (उपमान), कीर्ति (उपमेय), स्वगंगावगाहन (साधारणधर्म) तथा इव शब्द (वाचक) इन चारों का ही उपादान किया गया है। अथवा यह दूसरा उदाहरण लीजिये जिस प्रकार महादेव चन्द्रमा तथा विष दोनों का ग्रहण कर एक को सिर पर धारण करते हैं तथा अन्य को कण्ठ में धारण करते हैं, वैसे ही विद्वान् व्यक्ति भी गुण तथा दोष दोनों का ग्रहण कर (दूसरों के) गुण की सिर हिलाकर प्रशंसा करता है और (दूसरोंके) दोष को छिपाकर कण्ठ में धारण कर लेता है। यहाँ उपर्युक्त उदाहरण की तरह उपमान तथा उपमेय का साधारण धर्म एक ही नहीं है। वहाँ हंसी और कीर्ति दोनों में 'स्वर्गगावगाहनक्षमत्व' घटित होता है, पर यहां शङ्कर के साथ 'चन्द्र-विष-वहनक्षमत्व है, तो 'बुध' के साथ 'गुणदोषज्ञानक्षमत्व' । इस प्रकार उपमानरूप ईश्वर में चन्द्र तथा विष का ग्रहण घटित होता है, वे चन्द्र श्लाघन करते हैं अर्थात् उसे सिर पर धारण करते हैं और विष को कण्ठ में नियमित करते हैं अर्थात् उसे कण्ठ में स्थापित करते हैं; जब कि विद्वान् या ज्ञानी व्यक्ति गुण-दोष का ग्रहण अर्थात् ज्ञान प्राप्त करता है। वह प्रथम वस्तु अर्थात् गुण की सिर से प्रशंसाकरता है, सिर हिलाकर गुण का अभिनन्दन करता है, जब कि दूसरे पदार्थ-दूसरों के दोष का कण्ठ में नियमन करता है, अर्थात् वाणी से किसी के दोष का उद्घाटन नहीं करता। इस स्थल पर यह स्पष्ट है कि उपमान का साधारणधर्म तथा उपमेय का साधारणधर्म एक न होकर भिन्न-भिन्न है। इस भेद के होते हुए भी कवि ने चन्द्र-विष तथा गुण-दोष का एक साथ प्रयोग इसलिए किया है कि उनमें परस्पर बिंबप्रतिबिंबभाव विद्यमान है और बिंबप्रतिबिंबभाव होने के कारण उनमें अभेद स्थापित हो जाता है । इसके साथ ही शिव के द्वारा चन्द्रमा तथा विष के उपादान तथा विद्वान् के द्वारा गुण एवं दोष के ज्ञान दोनों के लिए कवि ने एक ही शब्द 'गृहन्' का प्रयोग कर उन भिन्न पदार्थों में भी अभेद 71
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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