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अध्यात्मविचारला निरूपण अनेक हो सकते हैं। इन सबका भेद पारमार्थिक अन्तिम अनुभवमें गल जाता है। पूर्ण आध्यात्मिक माने जानेवाले पुरुषने भी ऐसा नहीं कहा है कि वह जो कुछ कहता है उसीमें अन्तिम अनुभव आ जाता है।
इसके अतिरिक्त अतिसूक्ष्म एवं अतीन्द्रिय आध्यात्मिक तत्त्व और उनके स्वरूपके निरूपणके बारेमें सम्प्रदायभेद और पन्थभेदसे भेद पड़नेका दूसरा भी एक कारण है और वह यह कि मूलपुरुषके अनुयायी या उत्तराधिकारी माने जानेवाले तथा पूजे जानेवाले आचार्य एवं विद्वान् अधूरी एवं अस्पष्ट समझ होनेपर भी मुलपुरुषके अनुभव पूरी तौरपर समझे हों इस तरह उसका व्याख्यान व निरूपण करते हैं तथा ग्रन्थोंकी रचना करते हैं। इसका परिणाम दार्शनिक प्रणालियोंके पारस्परिक संघर्ष में आता है। यह बात जितने अंशमें भारतीय दर्शन एवं धर्मोको तथा उनकी उपशाखाओंको लागू होती है, उतने ही अंशमें जरथोस्ती, ईसाई और इस्लाम आदि धर्मोको भी लागू होती है ।
१ नान्यया भाषया म्लेच्छः शक्यो ग्राहयितुं यथा । न लौकिकमृते लोकः शक्यो ग्राहयितुं तथा ॥
-माध्यमिकवृत्ति पृ० ३७०जह णवि समकमणजो अणज्जभासं विणा दु गाहेदूं । तह ववहारेण विणा परमवत्युदेसणमसक्कं ॥
-समयसार का०८
पर