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________________ परमात्मतत्त्व देखी जाती हैं। इसमें भी तत्त्वज्ञान तथा धर्मकी परिभाषाएँ तो चालू भाषासे एक ही परम्परामें कुछ-न-कुछ भिन्न होनेकी ही । यदि हम मान लें कि अमुक साधक आध्यात्मिकताकी पूर्ण कक्षापर पहुँचा है । यहाँ प्रश्न होगा कि ऐसा साधक अपने आसपास इकट्ठे होनेवाले जिज्ञासुवर्गको अपना अनुभव किस भाषामें और किस तरह कहेगा ? इसका एकदम समझमें आ सके ऐसा उत्तर यही हो सकता है कि वह पूर्ण आध्यात्मिक पुरुष स्वयं साधक अवस्थामें जिस भाषा, परिभाषा एवं प्रणालीसे परिचित हो और सामने उपस्थित जिज्ञासुवर्गको जिस भाषा, परिभाषा एवं प्रणालीसे थोड़ा बहुत परिचय हो उसीके द्वारा वह अपना आध्यात्मिक अनुभव जता सकता है। यहाँ यह बात ध्यानमें रखनी आवश्यक है कि अपना आध्यात्मिक अनुभव कहते समय उसके आध्यात्मिक अनुभवमें एक बातका चित्र स्पष्ट एवं असंदिग्ध होता है कि अन्तिम कोटिका आध्यात्मिक अनुभव न तो शब्दगम्य ही है और न तर्कगम्य । इस वजहसे वैसा आध्यात्मिक एक तरफ़से मुक्तके स्वरूप और उसके स्थानके बारेमें नेति-नेति, वाङ्-मनस् अगोचरता, अव्याकृतता जैसे उद्गार निकालता है तो दूसरी तरफ़से अन्य परम्परामें मान्य हो ऐसे पूर्ण आध्यात्मिककी व्यावहारिक निरूपणशैलीसे कुछ-न-कुछ भिन्न या भिन्न प्रतीत होनेवाली शैलीमें अपना वक्तव्य कहता है। इस तरह सचमुच पूणेतापर पहुँचे हुए आध्यात्मिकोंके अनुभवकी एकरूपता भी देशकालकी भिन्न-भिन्न व्यवहारप्रणालियोंसे खण्डित होकर अन्तमें परस्पर विरुद्ध हैं ऐसा साधारण अधिकारियोंको लगा ही करता है । यहाँपर यह भी न भूलना चाहिये कि सचमुच आध्यात्मिक कहे जा सकें ऐसे अनेक पुरुषोंके ऐसे भी उद्गार मिलते हैं कि हम जो कुछ कहते हैं वह तो व्यावहारिक निरूपण है, और ऐसे व्यावहारिक
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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