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अध्यात्मविचारणा मुक्तिके स्थानके बारेमें जो दार्शनिक मान्यताएँ हैं वे, उपर्युक्त रीतिसे, सर्वथा भिन्न हैं यह सही, पर उनमें जो सर्वसामान्य महत्त्वका तत्त्व समाविष्ट है उस ओर ध्यान दें तो ऐसा लगेगा कि आध्यात्मिक अनुभवकी नींवमें कोई फर्क नहीं है, फिर चाहे दार्शनिक निरूपणमें भेद क्यों न पड़ता हो । वह आध्यात्मिक अनुभव कौनसा है, इसके बारे में विचार करनेपर खुद मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि देश-कालके प्रवाहमें ही अस्तित्व रखनेवाला और उस प्रवाहके अनुसार ही विचार एवं कल्पना करनेवाला चित्त जब अज्ञान और राग-द्वेषके आवरणोंसे सर्वथा मुक्त होता है तब वह स्वयं ही अपना अस्तित्व खो बैठता है और जो कुछ विशुद्धरूपमें या भावरूपमें बाकी रहता है उसके लिए ऐसे देश-कालकृत भेदका अवलम्बन करके ही सोचनेसमझने या विचारने जैसा कुछ नहीं रहता, और देश-कालके भेदका अवलम्बन करनेवाली कल्पनाओं अथवा भाषाभेदका स्पर्श तक नहीं होता। अतएव जो परिपूर्ण मुक्त बनता है वह तो अन्तमें इतना ही कह सकता है कि अन्तिम स्वरूप अनुभवगम्य है, तर्क या वाणीसे अगोचर है । यदि ऐसा है तो प्रत्येक दर्शनके अन्तिम प्रमाणरूप माने जानेवाले ग्रन्थोंमें जो मुक्तका स्वरूप और मुक्तिके स्थानका भिन्न-भिन्न निरूपण मिलता है वह क्यों ?-- यह प्रश्न साहजिक है। इसका उत्तर इतना ही दिया जा सकता है कि मनुष्यवर्गकी कोई एक निश्चित भाषा नहीं है। वह जैसे देशभेदसे भिन्न होती है वैसे ही कालभेदसे भी बदलती रहती है। इसी तरह संस्कार एवं आचारप्रणालियाँ भी भिन्न-भिन्न
(४.८.६२-४ ) में है। इसका सार गणधरवादकी प्रस्तावना पृ० १०७-८ में है।