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परमात्मतत्व
प्रसिद्ध है । जैन परम्परामें भी ब्रह्म तोक माना गया है, पर वह ब्रह्मलोक वैष्णवकोटिका नहीं; उसकी तो केवल पुनर्जन्म प्राप्त करनेवाले अमुक देवके एक स्वर्गधामके रूपमें कल्पना की गई है। जैनपरम्परा मुक्त जीवोंके अधिष्ठान के लिए जिस स्थान - की कल्पना करती है वह तो समय लोकके मस्तक पर -- अन्तमें आया है । उसे 'सिद्धस्थान' कहते हैं। वह कहती है कि समग्र मुक्त जीव अपने-अपने वास्तविक भेदके साथ उस स्थान में सदा के लिए स्थायी रहते हैं और तत्त्वतः वे सब भिन्न होनेपर भी ज्ञान एवं शुद्धिकी दृष्टिसे समान ही हैं ।
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बौद्धदर्शन जिस तरह मुक्तदशामें जीवके स्वरूप के बारेमें पहले से कोई निरूपण करता नहीं था फिर भी उत्तरकाल में कई बौद्ध दार्शनिकोंने मुक्तचित्तके विशुद्ध विज्ञानस्वरूपका निरूपण किया है, उसी तरह उसके मुक्तिकालीन स्थानके बारेमें भी हुआ है । प्राचीन बौद्ध उल्लेखोंपर से ऐसा कुछ फलित नहीं होता कि मुक्तपुद्गल या बुद्धका कोई अमुक स्थान है, पर उत्तरकालीन विज्ञानवादी जैसे बौद्ध दार्शनिक ऐसा मानते प्रतीत होते हैं कि मुक्तचित्तका एक विशुद्ध विज्ञानसन्ततिरूपसे सर्वदा अस्तित्व रहता है और ऐसी विज्ञानसन्ततियाँ पुद्गलभेदसे भिन्न हैं । इससे ऐसा फलित होता है कि मुक्त विज्ञानसन्ततिको बद्ध दशाके स्थान से कोई स्थानान्तर करनेकी आवश्यकता नहीं है; उस समय सिर्फ अज्ञान एवं राग-द्वेषके परिणामस्वरूप सूक्ष्म तथा स्थूल शरीरका सम्बन्ध सर्वथा नष्ट होता है इतना ही । इस तरह विज्ञान वादियोंका स्थानविषयक मन्तव्य स्पष्ट न होनेपर अन्ततः वह भी अव्याकृत ही रहता है' ।
१. बौद्धमत के अनुसार निर्वाणके स्थानकी चर्चा मिलिन्दपञ्हों