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________________ अध्यात्मविचारणा जीवबहुत्व मानते हैं और फिर भी परब्रह्म वासुदेवसे उनका सर्वथा भेद नहीं मानते, उनका ऐसा मन्तव्य है कि जीवात्मा जब मुक्त होता है तब वह वासुदेवके धाम वैकुण्ठ या ब्रह्मलोकमें जाता है और वासुदेवके सन्निधानमें उनके एक अंशरूपसे उनके जैसा होकर सदा बसता है। मध्व, जो अणुजीववादी होनेपर भी जीवको परब्रह्मसे सर्वथा भिन्न मानता है, वह भी मुक्तजीवकी स्थिति विष्णुके सन्निधानमें-लोकविशेषमें होती है ऐसी कल्पना करता है। शुद्धाद्वैतवादी वल्लभ भी अणुजीववादी है, पर वह ब्रह्मपरिणामवादी होनेसे दूसरी ही तरह मुक्ति घटाता है। वह कहता है कि एक प्रकारके भक्त जीव ऐसे हैं जो मुक्त होनेपर अक्षरब्रह्ममें एकरूप हो जाते हैं, जब कि दूसरे पुष्टि-भक्तिसम्पन्न जीव परब्रह्मस्वरूप होनेपर भी परब्रह्मकी भक्तिके लिए ही पुनः अवतार धारण करते हैं और मुक्तवत् विचरते हैं। __मध्यमपरिमाण-जीववादी जैनदर्शनका मन्तव्य एक तरहसे अणुजीववादी वैष्णव-परम्पराके साथ कुछ-कुछ मिलता है तो दूसरी तरहसे उससे कुछ अलग भी पड़ता है। जैनदर्शन जीवामाओंसे भिन्न ईश्वर, परमात्मा या परब्रह्मका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं मानता, अतः उसे ऐसी कल्पना नहीं करनी पड़ती कि मुक्त जीव परमात्माके सन्निधानमें अर्थात् लोकविशेषमें जाता है और रहता है। फिर भी वह है तो मूलमें मध्यमपरिमाणको माननेवाला, अतः जिस प्रकार अणु जीव गति करके एक स्थानसे स्थानान्तरमें वस्तुतः जाता है ऐसी कल्पना करनी पड़ती है, उसी तरह मध्यमपरिमाण अर्थात् शरीरपरिमाण जीव भी शरीर दूर होते ही एक स्थानसे स्थानान्तरमें गति करके वस्तुतः जा सकता है। ऐसा होनेसे जैनदर्शनने मुक्त जीवके लिए एक स्थानविशेषकी भी कल्पना की है । अलबत्ता, वैष्णव-परम्पराओं में ब्रह्मलोक शब्द
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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