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परमात्मतत्त्व
ही था वह, उपाधि दूर होनेपर, केवल ब्रह्मस्वरूप ही अनुभूत होता है। इससे केवलाद्वैती ब्रह्मवादीके अनुसार फलित ऐसा होता है कि जो-जो जीवात्मा साधनाके बलपर मुक्त होते हैं वे सब अन्तमें एकमात्र ब्रह्मस्वरूप ही हैं और उनके बीच भेदक उपाधि न होनेसे उनमें न तो परस्परमें भेद है और न परब्रह्मके साथ भेद । भक्त नरसिंह महेताके शब्दोंमें-'अन्ते हेमर्नु हेम होये।" अर्थात् अन्तमें सोनेका सोना ही रहता है।
अणुजीवात्मवादी वैष्णव-परम्पराओंको कुछ दूसरी ही कल्पना करनी पड़ी है । रामानुज जैसे विशिष्टाद्वैती, जो वास्तविक
१. सारा पद इस प्रकार हैवेद तो राम वदे श्रुति-स्मृति शाख दे कनक-कुंडल विषे भेद नोये । . घाट घडिया पछी नामरूप जूजवां अंते तो हेमनुं हेम होये ।।
अर्थात् वेद यों कहते हैं तथा श्रुति एवं स्मृति भी गवाही देती हैं कि स्वर्ण और स्वर्णकुंडल के बीच भेद नहीं है। आकार निर्मित होनेके पश्चात् नाम एवं रूप भिन्न-भिन्न होते हैं, किन्तु अन्तमें तो सोनेका सोना हो रहता है। कबीरका निम्नोक्त पद भी यही बात सूचित करता हैदरियावकी लहर दरियाव है जी
दरियाव और लहरमें भिन्न कोयम् । उठे तो नीर है बैठे तो नीर है
कहो जो दूसरा किस तरह होयम् ॥ उसीका फेरके नाम लहर धरा
लहरके कहे क्या नीर खोयम् । जक्त ही फेर जब जक्त परब्रह्ममें ..'
. ज्ञान कर देख. माल. गोयम् ॥