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________________ 58 श्रध्यात्मविचारणा आत्माको सर्वव्यापी मानते हैं उनका उत्तर एक है तो जो आत्मात्ववादी या आत्म- मध्यमपरिमाणवादी हैं, उनका उत्तर दूसरा है । आत्मविभुत्ववादियों में भी कोई अनेकात्मवादी हैं तो कोई एका त्मवादी, अतः उनके उत्तरोंमें भी कुछ-न-कुछ फर्क श्रनेका ही । इसी तरह जो जीवात्मा और नित्यमुक्त परमात्मा इन दोनोंका सर्वथा भिन्न अथवा भिन्नाभिन्न अस्तित्व मानते हैं उनका उत्तर भी कुछ-न-कुछ भिन्न ही होगा । न्याय-वैशेषिक और सांख्य योग जिस तरह आत्मविभुत्ववादी हैं उसी तरह आत्मबहुत्ववादी भी हैं। इससे उनके मत के अनुसार विदेहमुक्त आत्माका सांसारिक दशाका क्षेत्र और मुक्त दशाका क्षेत्र जुदा शक्य ही नहीं है । वे तो सिर्फ इतना ही कहते हैं कि जब विदेहमुक्ति होती है तब उस आत्माके साथ अनादि अज्ञात कालसे लगे हुए सूक्ष्म शरीरका और उसके फलरूप प्राप्त होने वाले स्थूल शरीरोंका सम्बन्ध सर्वदा के लिए छूट जाता है इतना ही । जीवात्मा या पुरुष परस्पर सर्वथा भिन्न हैं, अतः मुक्तिदशामें भी परस्पर भिन्नं स्वरूपसे जैसे सर्वव्यापी हैं वैसे ही सर्वव्यापी रहते हैं, पर विशेषता इतनी ही है कि उस समय शरीरका सम्बन्ध बिलकुल नहीं रहता । यद्यपि केवलाद्वैती ब्रह्मवादी भी आत्माका विभुत्व मानते हैं, परन्तु वे न्याय-वैशेषिक आदिकी भाँति जीवात्माका वास्तविक बहुत्व और जीवात्मा एवं ब्रह्मके बीचका वास्तविक भिन्नत्व नहीं मानते। इससे उनका उत्तर न्याय-वैशेषिक आदि उत्तरकी अपेक्षा भिन्न ही होगा । वे ऐसा कहते हैं कि मुक्त होने का मतलब सूक्ष्म शरीर या अन्तःकरणका सर्वथा विलय होना तो है ही, पर ऐसा विलय होते ही उस उपाधिके कारण जीवका ब्रह्मस्वरूपसे जो पृथक्त्व प्रतिभासित होता रहता है वह प्रतिभास अब नहीं होता, और तत्त्वरूपसे जो जीव ब्रह्मस्वरूप
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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