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________________ परमात्मतत्व ८३ मुक्त, ब्रह्मभूत या नर्वाणप्राप्त आत्मा के स्वरूप के बारेमें थोड़ा जान लेने के बाद देश और कालके प्रवाह में विचार करने के आदी हमारे मनमें एक प्रश्न उठता है कि वे मुक्त जीवात्मा विदेहमुक्ति प्राप्त करने के बाद रहते हैं किस स्थान में ? चेतन या अचेतन कोई भी तत्त्व वस्तुतः यदि द्रव्यरूप है तो उसका कोई-न-कोई स्थान होना ही चाहिये । इस प्रश्नने भी आध्यात्मिक एवं दार्शनिक चिन्त कोंको विचार करने के लिए प्रेरित किया । इस तरह के विचारके परिणामस्वरूप उन्होंने अपने-अपने दार्शनिक सिद्धान्तोंके साथ संगत हो ऐसे उत्तर दिये हैं और वे बहुधा एक दूसरे से सर्वथा विरुद्ध भी लगते हैं । उदाहरणार्थ, जो आत्मविभुत्ववादी होने से स होवाचैतद्वै तदक्षरं गार्गि ब्राह्मणा अभिवदन्त्यस्थूलमनवह्रस्वमदी - मलोहितमस्नेहमच्छायमतमोऽवाय्वनाकाशमसङ्गमरसमगन्धमचक्षुष्कमश्रोत्र मवागमनोऽतेजस्कमप्राणममुखममात्रमनन्तरमबाह्यं न तदश्नाति किंचन न तदश्नाति कश्चन । —बृहद. ३, ८. ८; ४.५ १५; कठोप. १. ३. १५. सव्वे सरा नियट्टन्ति । तक्का जत्थ न विज्जइ, मई तत्थ न गहिया । ए पारस खेयन्ने । से न दीहे न इस्से न वट्टे न तंसे न चउरंसे न परिमण्डले न कि हे न नीले न लोहिए न हालिद्दे न सुक्किले न सुरभिगन्धेन दुरभिगन्धे न तित्ते न कडुए न कसाएन बिले न महुरे न कक्कडे न मउए न गुरुंए न लहुए न सीए न उराहे न निद्धे न लुक्खे न काउ न रुहे न संगे न इत्थी न पुरिसे न अन्नहा । परिन्ने सन्ने उवमा न विज्जइ । रूवी सत्ता, पयस्स पयं नत्थि । से न सद्दे न रूवे न गन्धे न रसे न फासे इच्चेधावन्ति त्ति बेमि । 1 - आचारांगसूत्र १७०-१७१. इसी भावके बौद्ध उल्लेखों के लिए देखो मज्झिमनिकाय चूलमालु - क्यसुत्त ६३, संयुत्तनिकाय ४४ ।
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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