SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्यात्मविचारणा अवस्थान्तरित होनेवाला परिणमन है; अर्थात् जैनदर्शनके अनुसार मुक्त आत्मद्रव्यमें सहभूचेतना-आनन्द आदि शक्तियाँ अनावृत होकर सम्पूर्ण विशुद्ध रूपसे-ज्ञान-सुख आदि रूपसे सतत परिणत होती रहती हैं । वह केवल कूटस्थनित्य नहीं है, अपितु शक्तिरूपसे नित्य होनेपर भी प्रतिसमय होनेवाले नये-नये सदृश परिणामप्रवाहके कारण परिणामी भी है। इस तरह जैनदर्शनका मोक्षकालीन आत्मस्वरूप दूसरे सभी दर्शनोंसे किसी-न-किसी तरह जुदा पड़ता है । समानता हो तो न्याय-वैशेषिक आदि दर्शनोंके साथ द्रव्यरूपसे स्थिर रहने के बारे में और सांख्य योग तथा अद्वैतदर्शनोंके साथ सहभू गुणकी अभिव्यक्ति या प्रकाशके बारेमें । यद्यपि योगाचार या विज्ञानवादी बौद्ध-शाखाके ग्रन्थोंपरसे बहुत स्पष्ट तौरपर फलित नहीं होता, फिर भी ऐसा लगता है कि वे भी मूलमें क्षणवादी हैं, अतः मुक्तिकालमें आलयविज्ञानको विशुद्ध मानकर उसका सतत क्षणप्रवाह मानें तभी बौद्ध मौलिक मान्यता संगत हो सकती है । यदि वे ऐसा मानते हों तो वह जैनदर्शनकी मान्यताके बहुत समीप है। ___ऊपर भिन्न-भिन्न दर्शनोंके अनुसार मोक्षके स्वरूपका जो चित्र खींचा है उससे, ऊपर ऊपरसे देखनेपर, कुछ परस्पर विरोधी मान्यताओंका ख्याल आता है, पर ऐसा मान्यताभेद होनेपर भी एक सर्वसाधारण निर्विवाद मान्यता यह है कि वह स्वरूप वाणी और मनसे अर्थात् तर्क-वितर्कसे अगोचर है । उपनिषद और जैनआगमोंमें इस विचारका प्रतिघोष है । ऐसा लगता है कि बुद्धने इस विचारको केन्द्र में रखकर और उसके स्वरूपको अव्याकृत कहकर इस बारे में मौन धारण किया है। १. यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह । आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् न बिभेति कदाचन ॥ तैत्तिरीय उप. २. ४. १.
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy