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नित्यता द्रव्यके अतिरिक्त उसकी सहभू शक्तियोंतक फैली हुई है। इससे जैनदर्शन आत्मद्रव्यको न्याय-वैशेषिक आदिकी भाँति विभु नहीं मानता और रामानुज आदिकी भाँति अणुपरिमाण भी नहीं मानता । वह तो उसे मध्यम परिमाण मानकर उसका संकोच - विस्तार
स्वीकार करता है। वह कहता है कि चींटी जैसे सूक्ष्म जन्तुओं में जीव उनकी देह जितना होता है तो हाथी जैसे प्राणीमें वही जीव जब जन्म लेता है तब उसकी देह जितना बनता है । इस तरह शरीर के संकोच - विस्तार के अनुसार संसारी जीवका भी संकोचविस्तार होता है । यह हुई जैनदर्शनके अनुसार द्रव्यकी परिणामिनित्यता, क्योंकि जीव द्रव्य व्यक्तिरूपसे तो वहीका वही अर्थात् शाश्वत, और परिमाणकी दृष्टिसे उसका क़द परिवर्तनशील अर्थात् परिणामी । इस सिद्धान्त के अनुसार जैनदर्शनने पहले से ही ऐसा माना है कि मुक्तिदशा में अर्थात् देहमुक्त स्थिति में जीव द्रव्य क़दमें उसके चरमशरीरका प्रायः भाग जितना रहता है । यह मान्यता बाक्क़ी के सभी भारतीय दर्शनों की मान्यतासे बिलकुल भिन्न है, क्योंकि कई दर्शन मुक्त आत्माको विभु ही, तो कई दर्शन अपरिमाण ही मानते हैं । कोई-कोई दर्शन उसके मुक्तिकालीन परिमाणके बारेमें कुछ भी स्पष्ट रूपसे नहीं कहते, जब कि जैनदर्शन मध्यमपरिमाणकी मान्यता के अनुसार मुक्तिदशामें आत्मद्रव्यके परिमाणके बारेमें एक सुनिश्चित मान्यता रखता है ।
परमात्मतत्त्व
जैनदर्शन मुक्तस्थिति में सर्वथा आवरणविलय के कारण आत्मद्रव्यके चेतना, आनन्द आदि सहभू अनादि-अनन्त गुण या शक्तियोंका भी सम्पूर्ण और शुद्ध विकास मानता है । यह ज्ञान या सुखानुभवरूप विकास सांख्य-योग अथवा केवलाद्वैतदर्शन की भाँति चैतन्यकी अभिव्यक्ति मात्र नहीं है, पर यह विकास चेतना, आनन्द आदि शक्तियोंका विशुद्ध ज्ञान और सुखानुभवरूप सतत
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