________________
अध्यात्मविचारणा स्वातंत्र्यके लिए वैदिक परम्परामें पूर्ण अवकाश है। इसी तरह बौद्ध-परम्परामें विचार एवं तर्क-स्वातन्त्र्यके लिए सम्पूर्ण अवकाश रहा है । यद्यपि बौद्धशास्त्र वेदोंकी भाँति अपौरुषेय या ईश्वरप्रणीत नहीं माने जाते, किन्तु जैनशास्त्रोंकी भाँति मनुष्यकृत ही माने जाते हैं, फिर भी बुद्धने स्वयं ही अपने सर्वज्ञत्वका निषेध किया था और अपने वचनोंको भी परीक्षा करके ही माननेको कहा था, जब कि महावीरकी स्थिति इससे भिन्न है । प्राप्त उल्लेखोंके आधारपर महावीरने स्वयं ही अपनेको त्रिकालज्ञ और सर्वज्ञ कहा है, और साथ ही सर्वज्ञभाषितमें निःशंक रहनेपर अधिक जोर दिया गया है। इस कारण बौद्ध-परम्परामें विचार एवं तर्कका जितना स्वातंत्र्य खिला है उतना जैन-परम्परामें नहीं खिला । जो विचारक और तार्किक आचार्य जैन परम्परामें हुए उन सबको आगमोंमें उल्लिखित मोक्षके स्वरूपका प्रतिपादन करनेवाले वचनोंमेंसे फलित होनेवाले सीधे अर्थका ही निरूपण करना था और उसे ही अधिक विशद करना था, और ऐसे वचनोंमेंसे सीधे तौरपर फलित न होनेवाले भावका प्रतिपादन करनेकी तो गुंजाइश ही पहलेसे नहीं थी। इसीसे और मुख्यतः इसीसे जैन-परम्पराके तत्त्वज्ञानके अन्य सिद्धांतोंकी भाँति मोक्षके स्वरूपके बारेमें भी पूर्ण ऐक्यमत्य देखा जाता है।'
जैनदर्शन परिणामिनित्यताके सिद्धान्तको मानता है, पर वह सांख्य-योग दर्शनकी भाँति उस सिद्धान्तको केवल जड़ या अचेतन तत्त्व तक ही मर्यादित नहीं रखता। जैनदर्शन चेतन, जीव या आत्मद्रव्यको भी परिणामिनित्य मानता है। उसकी यह परिणामि
१. वैदिक परम्परा आगमवादी तो है ही, पर जिन उपनिषदोंके आधारपर मोक्ष के स्वरूपका निरूपण किया जाता है वे उपनिषद किसी एक ही कर्ताके नहीं माने जाते, जब कि जैन-परम्पराके आगमोंका मूल एकमात्र भगवान् महावीरका उपदेश माना जाता है।