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________________ ७६ परमात्मतत्व वीरके शासनमें अबतक अनेक गच्छ और शाखाओंके भेद पड़े हैं। इनमें आज प्रधान रूपसे कहे जा सके ऐसे चार फ़िर्के मौजूद हैं-श्वेताम्बर, दिगंबर, स्थानकवासी और तेरापंथ । इनमेंसे पहलेके दो प्राचीन हैं जब कि पीछेके दो क्रमशः अर्वाचीन और अर्वाचीनतर । इन चारों फ़िोंमें तत्त्वज्ञानके मुख्य-मुख्य सिद्धान्तोंमें किसी भी तरहका मतभेद नहीं है । जो मतभेद है वह तो खास तौरपर आचारकी व्यावहारिक प्रणालियोंके बारे में तथा उपासनाके विषयमें है । मोक्ष और निर्वाणकी कल्पना तो जैनपरम्पराकी नीव ही है। इसके तात्त्विक स्वरूपके बारेमें जैनपरम्पराकी सभी शाखाएँ पूर्ण रूपसे एकमत हैं । वैदिक दर्शनोंमें तथा बौद्ध-परम्पराकी शाखाओं में मोक्षके स्वरूपके बारे में जो मतभेद है वह ऊपर दिखाया गया है। उसके साथ जैन-परम्पराकी सभी शाखाओं में मतभेदरहित अथवा एक ही प्रकारके मोक्षके स्वरूपकी तुलना करें तो तनिक आश्चर्यके साथ प्रश्न होता है कि जैनेतर-परम्पराओंकी शाखाओंका जब आपस-आपसमें इतना मतभेद है तब जैन परम्पराकी शाखाओंमें कुछ भी मतभेद नहीं, तो इसका कारण या रहस्य क्या है ? इसका उत्तर यहाँपर अप्रासंगिक न होगा। ऋग्वेद आदिके मंत्रोंमें कहींपर भी मोक्षके स्वरूपकी चर्चा दिखाई नहीं पड़ती। अलबत्ता, वेदान्त-उपनिषदोंमें मोक्षका स्वरूप जतानेवाले वचन हैं ही । इन वचनोंका आधार लेकर भिन्न-भिन्न श्राचार्योंने अपनी-अपनी.परम्परा, कल्पना एवं तर्कशक्तिके बलपर मोक्षके स्वरूपका भित्र-भिन्न रूपसे निरूपण किया है। ऐसा होनेपर भी सबका बैदिक परम्परामें समावेश होता है तो उसका एकमात्र कारण वेदोंका एक या दूसरे रूपमें प्रामाण्य मानना है । वेदोंका प्रामाण्य मान्य रखनेपर दूसरी सभी बातोंमें विचार एवं तर्क
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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