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________________ अध्यात्मविचारणा पारमार्थिक सत् रहा और उससे भिन्न विश्वप्रपंचका मिथ्यात्व माना गया । विज्ञानवादकी यह मान्यता औपनिषद अद्वैतवादसे मिलती है; क्योंकि, भिन्न-भिन्न रूपसे ही सही, दोनोंमें एकमात्र विज्ञान अर्थात् चैतन्यका पारमार्थिकत्व माना गया है। विज्ञानवादने प्रवृत्तिविज्ञान और उसके विषयोंका मिथ्यात्व स्थापित किया और इस तरह माध्यमिक शून्यवादकी नई भूमिका निर्मित की। नागार्जुन जैसे प्रबल शून्यवादी तार्किकने कह दिया कि ऐसा आलयविज्ञान भी तकग्राह्य नहीं है। जो भाषा एवं तर्ककी मर्यादामें अथवा देशकालकी सांकेतिक परिभाषामें प्रतिपादित है वह सापेक्ष होता है, अतः सब कुछ स्वभावशून्य है । स्वभावसत् अथवा पारमार्थिकसत् तो योगीज्ञान या परमप्रज्ञाका विषय है। उसमें कोई दैशिक या कालिक खण्ड है ही नहीं। अतएव वही सच्चा निर्वाण है । शून्यवादका यह दर्शन केवलाद्वैतीके निर्गुण ब्रह्मवाद जैसा है। एकमें निषेधांश प्रधान है तो दूसरेमें निषेधके साथ विधि-अंश भी है। इस तरह बुद्ध भगवान्के निर्वाणविषयक अव्याकृतवादके कारण निर्वाणके बारेमें अनेक कल्पनाएँ अस्तित्वमें आई। ये कल्पनाएँ किसी-न-किसी दूसरे दर्शनके साथ मिलती भी हैं। ___ अब जैनदर्शनको लेकर विचार करें। जैन-परम्परा प्रारम्भसे निर्ग्रन्थ-परम्पराके नामसे प्रसिद्ध है। बुद्धके पहले भी इस परम्पराका अस्तित्व था। इसी परम्पराम महावीर हुए। महावीरको तत्त्वज्ञान एवं आचारकी विरासत पूर्ववर्ती पार्श्वनाथकी परम्परा द्वारा ही प्राप्त हुई है। इस समय हमारे पास जो ऐतिहासिक ज्ञान-सामग्री है वह इतना ही जताती है कि जैन-परम्पराकी तत्त्वज्ञान एवं आचारविषयक जो मौलिक मान्यताएँ हैं वे या तो महावीर द्वारा निरूपित हैं या उनके द्वारा समर्थित हैं। महा
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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