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अध्यात्म विचारणा
• योगदर्शन न्याय-वैशेषिककी भाँति गुणगुणीका भेद नहीं मानते, अतः न्याय-वैशेषिककी भाँति गुणोंका उत्पाद - विनाश मानकर पुरुष के कूटस्थनित्यत्व की रक्षा करना उनके लिए अप्रस्तुत है । इसलिए उन्होंने दूसरा रास्ता अपनाया । वह रास्ता यानी निर्गुणपुरुष माननेका ।' ऐसा होने से उन्होंने कर्तृत्व-भोक्तृत्व, बन्धमोक्ष आदि अवस्थाएँ पुरुषमें उपचरित मानीं और कूटस्थ नित्यत्व पूर्णतः घटा लिया ।
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केवलाद्वैती शंकर या अणुजीववादी रामानुज तथा वल्लभ सब मुक्तिदशा में चैतन्य और आनन्दका पूर्ण प्रकाश अथवा आविर्भाव अपनी-अपनी प्रणालिकाके अनुसार स्वीकार करके कूटस्थनित्यत्व घटा लेते हैं। एक तरह से देखें तो औपनिषद दर्शनोंकी कल्पना सांख्य योगकी कल्पना के साथ अधिक मिलतीजुलती है, नहीं कि न्याय-वैशेषिकदर्शन की कल्पनाके साथ; क्योंकि सभी औपनिषददर्शन मुक्तिदशा में सांख्य योगकी भाँति शुद्ध चेतना रूपसे ब्रह्मतत्त्व या जीवतत्त्वका अवस्थान मानते ही हैं ।
अब हम बौद्धपरम्परासम्मत निर्वाणके स्वरूपके बारेमें विचार करें। बौद्ध परम्पराकी शाखाएँ और निकाय अनेक हैं । उनमें से अतिप्रसिद्ध कही जा सकें ऐसी चार शाखाएँ उल्लेखयोग्य हैं - (१) प्राचीन बौद्ध और वैभाषिक, (२) सौत्रान्तिक, (३) माध्यमिक या शून्यवादी, और (४) योगाचार या विज्ञानवादी ।
१. अनादित्वान्निर्गुणत्वात् परमात्मायमभ्ययः । शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥ यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादांकाशं नोपलिप्यते । सर्वत्राऽवस्थितो देहे तथाSSत्मा नोपलिप्यते ॥
- गीता १३.३१-३२