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परमात्मतत्त्व
परन्तु चौबीस तत्त्ववादी प्राचीन सांख्यपरम्पराकी बन्धमोक्षप्रक्रिया पचीस तत्त्ववाली सांख्यपरम्परासे जुदी पड़ेगी ही। वह बुद्धिसत्त्व और उसमें उत्पन्न होनेवाले सुख-दुःख-इच्छा-द्वेष-ज्ञानअज्ञान आदि भावोंका आत्यन्तिक विलय मूलकारण प्रधानमें मानकर मोक्षकालमें ब्रह्मभाव या मुक्तस्वरूपका वर्णन करेगी, पर ऐसा नहीं कि मुक्तात्मा यानी केवल चेतना, क्योंकि इसमें प्रकृतिसे भिन्न चेतनाके लिए अवकाश ही नहीं है। चौबीस तत्त्ववादी सांख्य और न्याय-वैशेषिककी मान्यताके बीच भी बहुत साम्य है । पहला पक्ष मोक्षदशामें प्रकृतिके कार्यप्रपंचका अत्यन्त विलय मानता है, जब कि दूसरा पक्ष भी मुक्तिदशामें आत्माके गुणप्रपंचका अत्यन्त अभाव मानता है। पहलेका कार्यप्रपंच ही दूसरेका गुणप्रपंच है। शेष बाकी रहनेवाले प्रधान और आत्माके स्वरूपमें जो कुछ थोड़ा फ़र्क रहता है वह सिर्फ परिणामिनित्यत्व और कूटस्थनित्यत्वके ऐकान्तिक परिभाषाभेदके कारण।
ज्ञान-सुख-दुःख-इच्छा-द्वेष आदि गुणोंका उत्पाद और विनाश आत्मामें वास्तविक तौरपर होता है ऐसा माननेपर भी न्यायवैशेषिकदर्शन आत्माका तनिक भी अवस्थान्तर न हो ऐसे अर्थमें कूटस्थनित्य रूपसे जो वर्णन करते हैं वह कुछ आश्चर्यजनक लग सकता है, परन्तु इसका रहस्य उसके भेदवादमें है। न्यायवैशेषिकदर्शन गुण-गुणीका अत्यन्त भेद मानते हैं, अतः जब गुण उत्पन्न या विनष्ट होते हैं तब भी उनके उत्पाद-विनाशका स्पर्श उनके आधारभूत गुणी द्रव्यमें वे नहीं होने देते; और यह अवस्थाभेद तो गुणोंका है, न कि गुणीका ऐसा कहते हैं। इसी तरह वे आत्माको कर्ता, भोक्ता, बद्ध और मुक्त वास्तविक रूपसे मानते हैं और फिर भी अवस्थाभेदकी आपत्ति युक्ति प्रयुक्तिसे टालकर कूटस्थनित्यत्वकी मान्यतासे चिपके रहते हैं। सांख्य