________________
अध्यात्मविचारणा
ही नहीं है जब कि सांख्य-योग मतमें ऐसा व्यवहार प्रामाणिक है । न्याय-वैशेषिकसम्मत मुक्तिमें बुद्धि-सुख आदि गुणोंका आत्यन्तिक उच्छेद होनेसे आत्माका केवल कूटस्थनित्य द्रव्यरूपसे ही अस्तित्व माना जाता है, तब सांख्य-योग मतमें केवल चेतना रूपसे -- निर्गुण स्वरूपसे अर्थात् सहजभावसे ही उसका अस्तित्व माना जाता है । ऐसा होनेपर भी एकके मत से मुक्तिदशामें चैतन्य या ज्ञानका अभाव तो दूसरेके मत से उसका सद्भाव -- यह एक बड़ा अन्तर मालूम होता है, पर इन दोनों पक्षों की पारिभाषिक प्रक्रियाका भेद ध्यान में रखें तो तात्त्विक रूपसे दोनों पक्षोंकी मान्यता में कोई महत्त्वका अन्तर नहीं रहता । शरीर-इन्द्रियादि सम्बन्ध सापेक्ष बुद्धि-सुख-दुःख - इच्छा-द्वेष आदि गुणोंका आत्यन्तिक उच्छेद माननेवाले न्याय-वैशेषिकदर्शन संसारदशा में इन गुणोंका अस्तित्व आत्मामें स्वीकार करते हैं, अतः मुक्तिकाल में वे इनके आत्यन्तिक उच्छेदकी परिभाषाका ही प्रयोग कर सकते हैं; जब कि सांख्य योगदर्शन सुख-दुःख-ज्ञानअज्ञान इच्छा द्वेष आदि भाव पुरुषमें न मानकर सात्त्विक बुद्धितत्त्वमें मानते हैं और उसकी पुरुषमें पड़नेवाली छायाको ही आरोपित संसार कहते हैं । अतः वे जब मुक्तिदशा में सात्त्विक बुद्धिका उसके भावोंके साथ प्रकृति अर्थात् मूल कारण में आत्यन्तिक विलय मानते हैं तब पुरुषमें प्रथम व्यवहृत सुख-दुःख-इच्छाद्वेष आदि भावों और कर्तृत्वकी छायाका भी आत्यन्तिक अभाव ही स्वीकार करते हैं । एक पक्ष आत्मद्रव्यमें गुणोंका उपादानकारणत्व स्वीकार करके विचार करता है तो दूसरा पक्ष पुरुष में ऐसा कुछ भी माने बिना प्रकृति के प्रपंचद्वारा सारा विचार-व्यवहार करता है । इस तरह पहला पक्ष द्रव्य और गुणादिके भेदको वास्तविक मानता है, तो दूसरा पक्ष वैसे भेदको आरोपित समझता है ।