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परमात्मतत्व
है इतना ही । जिस तरह आकाशमें उड़नेवाला पक्षी स्वच्छ . पानीमें उड़ता दिखाई देता है सो मात्र प्रतिबिम्बके कारण ही, उसी तरह प्रकृतिके बन्ध और मोक्ष पुरुषमें व्यवहृत होते हैं तो वे सिर्फ परस्परके विशिष्ट सान्निध्यके कारण ही। इससे जब प्रकृतिमें उसका बुद्धि, अहंकार आदि कार्यप्रपंच पुनः सिमट जाता है
और मोक्षस्थिति आती है तब प्रकृतिका मोक्ष यानी विसदृश परिणामपरम्पराकी शून्यता अथवा केवल सदृश परिणामपरम्पराका सातत्य। जब प्रकृतिकी ऐसी स्थिति होती है तब उपचारसे पुरुष भी मुक्त कहा जाता है। अतएव उसकी मुक्ति अर्थात् द्रष्टाकासाक्षीमात्र चेतनका स्वरूपमें अवस्थान यानी नित्य, शुद्ध ऐसे कूटस्थ चैतन्यका प्राकृतिक छायापत्तिरहित अवस्थान' । सांख्ययोगसम्मत यह मुक्तिस्वरूप न्याय-वैशेषिक सम्मत मुक्तिस्वरूपसे एक प्रकारसे जुदा पड़ता है तो दूसरे प्रकारसे उसके साथ मिलता भी है। जुदा इस अर्थमें पड़ता है कि न्याय वैशेषिक आत्माको सांख्य-योगकी भाँति द्रव्यरूप मानते हैं, फिर भी उसे सर्वथा निर्गुण तथा आगन्तुक गुणशून्य नहीं मानते, जब कि सांख्य-योग
आत्माको सर्वथा निर्गुण मानते हैं। इससे पहलेके मतके अनुसार आत्माका स्वरूप द्रव्यरूप होनेपर भी चेतनामय नहीं है, जब कि दूसरेके मतके अनुसार उसका स्वरूप ही केवल स्वतःप्रकाशमान चेतनारूप है । अतः न्याय-वैशेषिक मतमें मुक्तिदशामें चैतन्यके स्फुरण या अभिव्यक्ति जैसे व्यवहार के लिए अवकाश
१. पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति ।
-योगसूत्र ४.३४ तेन निवृत्तप्रसवामर्थवशात् सप्तरूपविनिवृत्ताम् । प्रकृतिं पश्यति पुरुषः प्रेक्षकवदवस्थितः स्वच्छः ॥
-सांख्यकारिका ६५