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________________ अध्यात्मविचारणा अन्त जब दूसरे दार्शनिक ऐसे ज्ञान या चैतन्य और सुख या आनन्दविहीन मोक्षकी उपासना में पाषाणवत् जड़ उपासनाका आक्षेप न्याय-वैशेषिक के ऊपर करते हैं तब वे व्यावहारिक अनुभव के बलपर एक ही समाधान देते हैं कि सच्चा साधक पुरुषार्थी केवल अनिष्टके परिहारके लिए ही प्रयत्न करता है । ऐसा परिहार ही उसका सुख है या आनन्द है । इसके सिवाय मोक्षस्थिति में भावात्मक चैतन्य या आनन्दको मानने में युक्तिका कोई आधार नहीं है । इस तरह न्याय-वैशेषिक दर्शन में मोक्ष अर्थात् नित्य या अनित्य सुख-दुःखरहित केवल द्रव्यरूपसे आत्मतत्त्वकी अवस्थिति । ७० अब सांख्य योग दर्शनोंको लेकर विचार करें। ये दोनों निष्ठाएँ प्रकृति से भिन्न ऐसे पुरुषको स्वतः सिद्ध चेतनारूप मानती हैं। वे पुरुष में न्याय-वैशेषिकको भाँति किसी भी आगन्तुक या जन्यगुणका अस्तित्व किंवा स्पर्शतक नहीं मानतीं। जो पुरुषरूप है वह अपरिणामी अखण्ड चेतना या चैतन्यमात्र है और सर्वथा कूटस्थनित्य होनेसे उसमें वास्तविक संसार-दशा भी नहीं है । बन्ध अर्थात् संसार और मोक्ष ये दोनों वस्तुतः प्रकृतिकी अवस्थाएँ हैं । इन अवस्थाओंका पुरुषमें आरोप या उपचार होता १. तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्गः । - न्यायसूत्र १.१.२२ तथा भाष्य तदेवं धिषणादीनां नवानामपि मूलतः । गुणानामात्मनो ध्वंसः सोऽपवर्गः प्रतिष्ठितः ॥ - न्यायमंजरी, पृ० ५०८ २० तस्मान्न बध्यते नाsपि मुच्यते नाऽपि संसरति कश्चित् । संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः ॥ - सांख्यकारिका ६२
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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