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________________ परत्मामबत्व દદ न्याय और वैशेषिक दोनों आत्माको चेतन कहते हैं, पर उनके मतसे चैतन्य साहजिक नहीं किन्तु आगन्तुक है । शरीर, इन्द्रिय और मन आदिका जबतक सम्बन्ध रहता है तभी तक उनके द्वारा उत्पन्न ज्ञान आत्मा में होते हैं । ऐसे ज्ञानोंको धारण करनेकी शक्ति अर्थात् उपादानकारणता ही उनके मतमें चैतन्य है। परन्तु ऐसी कोई साहजिक चेतना वे नहीं मानते जो शरीर, इन्द्रिय आदिके सम्बन्धके बिना भी ज्ञानगुण रूपसे या विषयग्रहण रूपसे प्रकाशित या स्फुरित होती रहे । न्याय-वैशेषिक दर्शनकी इस कल्पनासे इतर वैदिक दर्शनोंकी कल्पना सर्वथा भिन्न है। सांख्य-योग या औपनिषद दर्शनोंमेंसे ऐसा दूसरा कोई भी वैदिक दर्शन नहीं है जो न्याय-वैशेषिककी भाँति आत्मामें चैतन्य मात्र आगन्तुक मानता हो । वे सभी दर्शन, फिर चाहे वह अणुजीववादी हो अथवा विभुपुरुषवादी हो या विभुपरब्रह्मवादी हो, आत्मतत्त्वमें सहज चेतना मानते हैं और जब शरीर, इन्द्रिय, मन आदिका सम्बन्ध न हो तब विदेहमुक्त दशामें भी ऐसी चेतनाका अनावृत विकास अथवा ज्ञानस्फुरण स्वीकार करते हैं। ऐसा होनेसे उनकी मोक्षस्वरूपकी कल्पनामें बड़ा अन्तर पड़ जाता है। __ न्याय-वैशेषिक दर्शन ऐसा कहते हैं कि मोक्ष अर्थात् सुखदुःख-ज्ञान-इच्छा-द्वेष आदि सभी गुणोंका आत्यन्तिक उच्छेद । उनके मतसे मोक्ष इसीलिए परमपुरुषार्थ है कि उसमें किसी भी प्रकारके दुःख या दुःखके कारणका अस्तित्व नहीं रहता। वे मोक्षकी उपासना इसलिए नहीं करते कि उसके प्राप्त होनेपर उसमें किसी चैतन्य या सुख जैसे सहज और शाश्वत गुणका अनुभव हो । उनका मोक्ष अर्थात् सहभू अमुक गुणोंके अतिरिक्त बाकीके सभी ज्ञान-सुख-दुःख आदि जन्यगुणोंका सदाके लिए
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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