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परमात्मतत्त्व
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किया । इसका दार्शनिक चिन्तनमें मूलमें अर्थ इतना ही है कि कोई भी द्रव्य या तत्त्व न तो सिर्फ शाश्वत ही हैं और न सिर्फ उच्छेदशील । तत्त्व हो तो वह ऐसा ही हो सकता है कि उसमें कूटस्थता भी न हो और उच्छेदशीलता भी न हो । इस मध्यम - मार्गी विचार में से क्रमशः सन्ततिनित्यतावादका विकास हुआ । इसका भाव इतना ही है कि परिवर्तित होनेवाला ऐसा कोई अनुस्यूत या अखण्ड द्रव्य नहीं है, पर पूर्वोत्तर क्षणोंमें बहने वाली एक सतत धारामात्र है । यहाँपर हमें तो इतना ही ध्यानमें रखना है कि सन्ततिनित्यतावाद पुनर्जन्म मानता ही है और पुनर्जन्म माना तो फिर जन्म-जन्मान्तर में चित्त या चैतन्यधाराका सातत्य मानना ही रहा। दूसरी बात यह है कि सन्ततिनित्यतावाद कूटस्थनित्यता एवं परिणामिनित्यता इन दोनोंका विरोध करनेवाला एक पक्ष है, जिसे इन दोनों पक्षोंके आक्षेपोंका निराकरण करके अपना अस्तित्व सिद्ध करना है । इसी प्रकार कूटस्थ - नित्य और परिणामिनित्यवादको भी सन्ततिनित्यता पक्षकी ओरसे होने वाले प्रहारोंको रोककर अपना अस्तित्व बनाये रखना था । इस संघर्षके कारण प्रत्येक पक्षपर दूसरे पक्षोंका प्रत्यक्ष या परोक्ष रूपसे प्रभाव पड़ा ही है, फिर चाहे वह प्रभाव कोई खुले तौरपर स्वीकार करे अथवा शब्दान्तर या परिभाषान्तरसे छिपाये या उसे गूढ़ बना दे । तत्त्वचिन्तनकी इतनी सामान्य भूमिका जानने पर ही भारतीय आत्मवादी प्रत्येक परम्पराके संसार और मोक्षविषयक विचार यथावत् समझ में आ सकते हैं ।
आत्मवादी भारतीय परम्पराएँ मुख्यतः चार विभागों में विभक्त की जा सकती हैं—वैदिक, जैन, बौद्ध और भाजीवक ।
१. दीघनिकायगत ब्रह्मजालसुत्त; संयुत्तनिकाय १२.१७,१२.२४ श्रादि । विशेष विवरण के लिये देखो - न्यायावतारवार्तिकवृत्तिकी प्रस्तावना पृ. ७-८ ॥
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