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________________ अध्यात्मविचारणा अर्थ है वह तत्त्व जो निरन्तर टिका रहे और कभी उच्छिन्न न हो । शाश्वतके अर्थमें नित्य, ध्रुव, कूटस्थ जैसे पदोंका भी प्रयोग होता था।' परन्तु एक समय निरन्तरताके पारमार्थिक स्वरूपके बारेमें तत्त्वचिन्तकोंमें प्रश्न खड़े हुए । वे प्रश्न ये हैं-(१) जो तत्त्व सतत रहनेपर भी किसी भी प्रकारसे परिवर्तित न हो क्या निरन्तरका यह अर्थ है ? अथवा (२) सतत अस्तित्व होनेपर भी जो सहभूशक्तिसे और बाह्य निमित्तसे सजातीय या विजातीय किसी भी प्रकारके परिवर्तन या परिणामका अनुभव कर सके वह ? मूलमें शाश्वत या निरन्तर तत्त्वके स्वरूपके बारेमें ये दो प्रश्न थे। कोई शाश्वत तत्त्वको अपरिवर्तिष्णु मानते तो कोई परिवर्तिष्णु । पहले प्रकारके कूटस्थनित्यवादी और दूसरे प्रकारके परिणामिनित्यवादी कहे जाते हैं। दोनों तत्त्वको नित्य या निरन्तर तो मानते ही हैं, फर्क सिर्फ परिवर्तन मानने न माननेका है। यह फर्क दरसानेके लिए प्रथम प्रकारके चिन्तकोंने नित्यके साथ कूटस्थ पद जोड़ा, तो दूसरे प्रकारके चिन्तकोंने परिणामी पद जोड़ा । ये दोनों प्रकारकी मान्यताएँ इतने अंशमें तो समान हैं कि निरन्तर रहनेवाला तत्त्व या द्रव्य न तो कभी सर्वथा अपूर्व उत्पन्न होता है और न सर्वथा विनष्ट ही होता है। शाश्वत और उच्छेदवाद ये दोनों सर्वथा परस्पर विरुद्ध होनेसे आमने-सामनेके अन्तिम छोर हैं। ऐसी अन्तिम कोटियाँ एकान्त या एकांगी होनेसे पारमार्थिक नहीं हो सकतीं ऐसे विचारमेंसे बुद्धने मध्यमप्रतिपदाकी प्ररूपणा और उसका विकास १. यह विचार प्रथम व्याख्यानमें पृ. ४४ पर आया है। फिर भी यहाँ पुनः चर्चा इसलिए की है कि प्रस्तुत सन्दर्भ समझने में सरलता हो । वस्तुतः दोनों स्थानोंका विषय एक है, पर उनका निरूपण सन्दर्भके अनुसार होनेसे विषयको विशेष स्पष्टता ही होती है ।
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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