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परमात्मतत्त्व
सम्बन्ध होने के कारण शक्य और आवश्यक हो वैसी और उतनी प्रवृत्ति करता है, फिर भी रागद्वेषजन्य वृत्तियों और अज्ञानका लेश भी स्पर्श न होनेसे वह बँधता नहीं है । उसको समग्र प्रवृत्ति साहजिक रूपसे ही कल्याणवह होती है और शेष आयुष्यका परिपाक होते ही वह विदेहमुक्त बनता है। ऐसे जीवन्मुक्तका जैनपरम्परामें अर्हत्, तीर्थंकर या सयोगिकेवली रूपसे वर्णन है, तो बौद्ध-परम्परा अर्हत्, सुगत या लोकोत्तर सत्त्वरूपसे उसका वर्णन करती है। न्याय' और योगपरम्परामें भी ऐसे जीवन्मुक्तका अस्तित्व माना गया है और उसका चरमदेह, केवली, कुशल आदि विशेषणोंसे उल्लेख किया है। सामान्यतः रामानुज, मध्व आदि वैष्णव-परम्पराओंके सिवाय सभी आध्यात्मिक परम्पराएँ जीवन्मुक्तका अस्तित्व मान्य रखती हैं। ___ विदेहमुक्त होनेपर जीवात्माका स्वरूप और उसकी स्थिति कैसी होती है, इस विषयमें भी दार्शनिकोंने कल्पनाएँ की हैं और ये कल्पनाएँ बहुत बार तो एक दूसरीसे विरुद्ध भी हैं । फिर भी प्राप्त साधनोंके आधारपर मुक्त आत्माके स्वरूपके विषयमें वे दार्शनिक मान्यताएँ कैसी हैं इसका अवलोकन यहाँ कुछ तफ़सीलसे करेंगे।
देहके साथ ही चैतन्यका अस्तित्व विलुप्त होता है ऐसी मान्यतावाले अपुनर्जन्मवादी उच्छेदवादी कहे जाते हैं, पर जो देह नाशके बाद भी चैतन्यका किसी-न-किसी रूपमें निरन्तर अस्तित्व मान्य रखते हैं वे शाश्वतवादी कहे जाते हैं। शाश्वतका १. सोऽयमध्यात्म बहिश्च विविक्तचित्तो विहरन् मुक्त इत्युच्यते ।
-न्यायभाष्य ४. २. १ न प्रवृत्तिः प्रतिसन्धानाय हीनक्लेशस्य ।
-न्यायसूत्र ४.१.६४ २. योगसूत्रभाष्य २. ४. २७