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अध्यात्म विचारणा
उत्सुकता रखता है और उसके लिए जद्दोजहद भी करता है । ऐसी किसी गूढ़ दिव्य शक्तिकी प्रेरणा या जागृति न होती तो मानवमने अपने आत्मस्वरूपके बारे में तथा अपने आसपासके जगत् के स्वरूप के बारेमें खोज न की होती और अकल्प्य ऐसे परमात्मस्वरूपका आदर्श सम्मुख रखकर त्रिविध एषणा में से निष्पन्न चिर-परिचित सुखोंको छोड़ने में परमानन्द न माना होता । ऐसी आध्यात्मिक प्रेरणाके कारण ही मनुष्यने मोक्षपुरुषार्थ के साथ निष्कामताका सम्बन्ध अनिवार्य है ऐसा अनुभव किया और उसी मार्गपर प्रस्थान शुरू किया । मनुष्यने- साधक मनुष्यने अनुभवसे देखा कि परमात्मपदके साथ उसका सम्बन्ध द्वैतकोटिका हो या अद्वैतकोटिका, पर वह सम्बन्ध अर्थात् मुक्ति सिद्ध करनेका अनिवार्य साधन निष्कामता या निष्कषायता है । किसी भी आध्यात्मिक परम्पराका ऐसा साधक नहीं है जो परमात्मपदकी प्राप्तिके लिए निष्कामताको अनिवार्य साधन न मानता हो । इस तरह जीवात्मा और परमात्माके बीचके सम्बन्धके प्रश्नने साधक के समक्ष मोक्षका आदर्श उपस्थित किया और साथ ही सर्वसम्मत साधन के तौरपर निष्का
ताकर उसे मोड़ा ।
निष्कामताकी सिद्धिके बहिरंग एवं अन्तरंग साधनोंका तथा उसकी पूर्ण सिद्धि तककी क्रमिक भूमिकाओंका विचार करनेसे पूर्व मोक्ष के स्वरूप के बारेमें दार्शनिक साधकोंकी जो मान्यताएँ
उनका संक्षेप में यहाँपर निर्देश करना अप्रासंगिक न होगा । ' सामान्यतः मुक्ति या मोक्षके दो रूप माने गये हैं । पहला सदेह अवस्थामें सिद्ध होनेवाली जीवन्मुक्ति और दूसरा सर्वदाके लिए देहधारण से मुक्त होनेकी अर्थात् विदेह अवस्था में होनेवाली विदेहमुक्ति । जीवन्मुक्ति देहधारी आत्मामें सिद्ध होनेवाली रागद्वेष- मोहकी सर्वथा निवृत्ति है। ऐसा जीवन्मुक्त देहके साथ