________________
परमात्मतत्त्व
दिखाई पड़ती है उसका विकासक्रम देखनेपर ऐसा जान पड़ता है कि ऋग्वेदके महत्त्वपूर्ण कतिपय सूक्तोंमें जो तत्त्वचिन्तन है वह बहुत गूढ, गंभीर और आकर्षक है, फिर भी मूलकारणविष. यक जिज्ञासा, तर्क, कुतूहल और संशयकी भूमिकामेंसे ही वह मुख्यतः प्रवृत्त हुआ है। अभी उसमें आध्यात्मिक साधनाका या परमतत्त्वके साथ जीवात्माके सम्बन्धका मार्मिक प्रश्न उपस्थित ही नहीं हुआ है । ब्राह्मणग्रन्थोंमें तत्त्वचिन्तन है सही, पर वह यज्ञादि कर्मकांडके स्वरूप और उसके ऐहिक-पारलौकिक लाभोंकी कामनामें ही उलझ गया है, जब कि उपनिषदोंका तत्त्व. चिन्तन भिन्न ही भूमिकापर चलता है। उनमें आधिभौतिक या आधिदैविक मुद्दोंकी चर्चा तो आती है, पर वह आध्यात्मिक भूमिकाकी पृष्ठभूमिके तौरपर ही। इसीलिए उपनिषदोंका तत्त्व. . चिन्तन जीवात्मा और परमात्माके सम्बन्धको प्रधानरूपसे छूता है; और बौद्ध या जैन-वाङ्मयमें उपलब्ध तत्त्वचिन्तनकी तो नीव ही पहलेसे आध्यात्मिक भूमिका रही है । इसीलिए हम उपनिषदों
और जैन आगमों या बौद्ध पिटकों तथा उत्तरवर्ती दर्शनसूत्रोंमें मोक्षके अतिरिक्त दूसरे किसी प्रश्नकी प्रधानता नहीं पाते । ___ यों तो प्रत्येक जीवात्मा या चेतनमें अचिन्त्य दिव्य शक्ति है जो न तो स्थूल-इन्द्रियगम्य है और न स्थूल-मनोगम्य, और फिर भी वह है; इतना ही नहीं, वह स्पन्दमान और प्रगतिशील हैइस बातकी प्रतीति मानवदेहधारी चेतनकी जागृतिद्वारा मिलती है। मनुष्य अपनेमें रही हुई इस दिव्य शक्तिकी अकल्प्य प्रेरणासे ही चालू जीवनके रसहीन और तंग दायरेमेंसे मुक्त होने और जैसी स्थिति है उसमेंसे विशेष और विशेष ऊर्ध्वगामी बननेकी
१. देखो ऋग्वेद १०.१२१ प्रजापतिसूक्त; १०.१२६ नासदीयसूक्त; ८.८६ विश्वकर्माविषयक सूक्त और १०.११० त्वष्टाविषयक सूक्त श्रादि ।