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अध्यात्मविचारणा वह सर्वथा वासनाबन्धन या संयोजनासे विमुक्त होने के कारण विशुद्धस्वरूप है और वही अर्हत् , सुगत अथवा परमात्मा रूपसे पहचाना जा सकता है।
ऊपर जो थोड़ी चर्चा की है उसका सार यही है कि यदि न्याय-वैशेषिक आदि कई परम्पराएँ एक स्वतंत्र कर्ता तथा नीतिनियामक रूपसे परमात्माको मानती हैं, तो कोई योग और सेश्वर सांख्य जैसी परम्परा मात्र साक्षीरूप एक परमात्माको मानती है, तो दूसरी केवलाद्वैत जैसी कोई परम्परा वैसे भिन्न कर्ता, नियामक और साक्षीरूप एक परमात्माको न मानकर सम्पूर्ण चराचरके भीतर और बाहर तथा उससे अभिन्न ऐसे एक सच्चिदानन्द ब्रह्मतत्त्वको परमात्मा कहती है; जब कि दूसरी जैनबौद्ध जैसी परम्पराएँ ऊपरकी सब मान्यताओंसे जुदा होकर नाना जीव या सत्त्वोंका पारमार्थिक अस्तित्व स्वीकार करके उनमें ही शक्तिरूपसे परमात्माका स्वरूप मानती हैं और प्रयत्नसे प्रत्येक जीवात्मा या सत्त्व उस परमात्मस्वरूपको व्यक्त करता है ऐसा भी स्वीकार करती हैं।
जीव एवं परमात्मरूपसे आत्मा या चेतनकी थोड़ी विचारणा करने के बाद उन दोनोंके बीच क्या सम्बन्ध है, यह प्रश्न उपस्थित होता है। तत्त्वचिन्तनके परिणामस्वरूप जीवात्मा और परमात्माका अस्तित्व सिद्ध होते ही मानव-मनमें प्रश्न उठा कि जीवात्माका परमात्माके साथ किस तरहका सम्बन्ध हो सकता है ? सम्बन्धकी इस जिज्ञासामेंसे अनेकविध साधनामार्ग अस्तित्वमें आये और इन मार्गों के अन्तिम साध्यके तौरपर मोक्षपुरुषार्थका आदर्श स्थिर हुआ।
उपलब्ध भारतीय वाङ्मयमें तत्त्वचिन्तनकी जो धारा