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परमात्मतत्त्व
शंकराचार्य जैसे प्रौढ़ आचार्योंने जिस मान्यताको अद्भुत रूपसे पल्लवित एवं पुष्पित करके समझाया और घटाया भी है। यह मान्यता अर्थात् जीव या जगत्से भिन्न कोई एक परमात्मतत्त्वको स्वीकार न करना, किन्तु भौतिक विश्व और उससे पर सर्वत्र व्याप्त एक सच्चिदानन्दरूप परब्रह्म ही वास्तविक है, वही अन्तिम है और वही सब कुछ है ऐसा मानना । इस अखण्ड परब्रह्मकी मान्यतामें न तो देश-कालका भेद वास्तविक रहता है और न जीवात्माओंका पारस्परिक पृथक्त्व एवं भिन्नत्व ही वास्तविक रहते हैं । इस प्रकार ऋग्वेदमें दिखाई देनेवाली निसर्गपूजा अनेकदेववाद, क्रमप्रधानदेववाद, एकदेववाद और अन्तमें परब्रह्मवादमें पर्यवसित होती है। इन विभिन्न वादोंमेंसे इस समय एकेश्वरवाद
और परब्रह्मवाद ये दो वाद ही सभी वैदिक दर्शनोंको, एक या दूसरे रूपसे प्रधानतया अपने में समा लेते हैं। देवविषयक दूसरे प्राचीन अनेक वाद इन दो मुख्य वादोंके आसपास या तो विलीन हो जाते हैं या फिर पौराणिक वर्णन जैसे बने रहते हैं। ____ अब हम जैन और बौद्ध-परम्पराके बारेमें विचार करें । सब कोई जानते हैं कि ये दोनों परम्पराएँ मूलमें ही वैदिक वाङ्मयको अन्तिम प्रमाण नहीं मानतीं। इतना ही नहीं ये वैदिक वाङ्मयसे निरपेक्ष होकर अपने मन्तव्योंको स्थिर करती और सँभालती आई हैं। जब ये दोनों परम्पराएँ वेद, ब्राह्मण और उपनिषदोंके आधारपर विचार न करके स्वतन्त्ररूपसे विचार करती हैं तब स्वाभाविकरूपसे ही इनके जीव, जगत् व परमात्मविषयक चिन्तन और मत भिन्न ही भूमिकापर स्थित हुए। ___ वैदिक वाङ्मय और वेदावलम्बी दर्शनोंमें अनेक देव या एक देव प्रधान होता है। अनेक देव उस-उस सर्जनके कर्ता माने जाते हों, अथवा कोई विश्वकर्मा, प्रजापति जैसा एक देव समग्र