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अध्यात्म विचारणा
सर्जनका कर्ता माना जाता हो तथा वरुण या अन्य किसी नामसे देव प्राणियोंके सुकृत - दुष्कृतका प्रेरक अथवा मानवका मार्ग - दर्शक समझा जाता हो तब ऐसे देवों या देवको माननेवाला कोई भी भक्त, उपासक, ज्ञानी, कर्मयोगी वा कर्मकाण्डी मनुष्य . कुदरती तौरपर अनेक देव या एक देवके प्रति गौण बनकर किंकर या दास बन जाता है तथा उसकी कृपा और अनुग्रह पाने के लिए उत्सुक बना रहता है । जैन एवं बौद्ध परम्परामें देवोंका स्थान है, पर वे छोटे-बड़े सब देव भौतिक विभूतिमें चाहे जितने बड़े क्यों न हों, फिर भी उनकी अपेक्षा मनुष्यका स्थान बहुत उत्कृष्ट माना गया है। जैन-बौद्ध दोनों परम्पराओंकी एक ध्रुव मान्यता है कि बाह्यविभूति एवं शारीरिक शक्तिकी दृष्टिसे मनुष्य देवोंकी अपेक्षा चाहे जितना अल्प और क्षुद्र क्यों न हो, पर जब वह आध्यात्मिक मार्गपर आगे बढ़ता है तब बड़े से बड़े शक्तिशाली देव भी उसके दास बन जाते हैं इस तरह वैदिक परम्परामें परमेश्वरका कर्ता और नीतिनियामक रूपसे जो स्थान है उसका बौद्ध या जैन- परम्परामें कोई अवकाश पहले ही से नहीं था । इस प्रकार दोनों परम्पराओं में कर्ता एवं नीतिनियामकके तौरपर परमेश्वरका कोई अस्तित्व न रहनेसे नित्य- परमेश्वरका मात्र साक्षीरूप स्थान, जो योगपरम्परामें सुरक्षित है वह भी, नहीं रहता । इन दोनों परम्पराओं में मनुष्य - आध्यात्मिक मनुष्य - साधनाके शिखर पर पहुँचा हुआ मनुष्य ही देवाधिदेव या परमात्माका स्थान लेता है और वह भी कर्ता या फलदाता के रूपमें नहीं, किन्तु मात्र आदर्श उपास्य के रूपमें ।
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वैदिक परम्परामें सर्जनव्यापार ऋग्वेदके कालसे ही दो प्रकार से देखा जाता है । कोई एक समर्थ देव अपने से भिन्न उपादान द्रव्य में से विश्वकी सृष्टि करता है। यह हुई भेददृष्टि । मूलमें ही