SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्यात्मविचारणा मानवसमूह जैसे-जैसे एक दूसरेके नज़दीक आते गये वैसे वैसे उन देवोंकी मान्यताका दायरा भी विस्तृत होता गया तथा उसमें रूपान्तर भी होता गया। कभी अनेक देवोंकी साथ ही और समान भावसे पूजा व स्तुति होती है, तो कभी उनमेंसे एक-एक बारी-बारीसे प्रधान बनकर दूसरे उस समयके लिए गौण बन जाते हैं । इनमेंसे अन्ततः एक ही देव बाकी रहता है और दूसरे देव उसमें समा जाते हैं । यह एक देव ही उस समय परमात्मा है; और यही हिरण्यगर्भ, विश्वकर्मा, प्रजापति जैसे नामसे व्यवहृत हुआ है । ब्राह्मण और उपनिषदोंमें एकदेवके रूपमें प्रजापति ही शेष रहता है। अलबत्ता, कभी-कभी इसके लिये स्वयम्भू पदका भी प्रयोग हुआ है । यह एक देव या एकेश्वरकी मान्यता, आगे जाकर अद्वैतका विकास होनेपर भी, आज तक कायम रही है । न्याय-वैशेषिक दर्शनमें इसी एक परमेश्वरने महेश्वरका नाम धारण करके सृष्टिके कर्तृत्वका तथा पुण्य-पापके नियामकत्वका पद सुरक्षित रखा है, तो वैष्णव-परम्पराओंमें इसने पुरुषोत्तम, वासुदेव या नारायणके नामसे यह स्थान बनाये रखा है । सेश्वर सांख्य या योगशास्त्र में इसने पुरुषविशेष या ईश्वरके नामसे यह स्थान कायम रखा है। यह पुरुषविशेष कर्ता या न्यायदाता मिटकर साक्षीरूप बना रहता है, जो सांख्य तत्त्वज्ञानकी पुरुषविषयक कूटस्थनित्यत्वकी मान्यताके साथ संगत है। . परन्तु, सृष्टिका कर्ता और नीतिका नियामक तथा सृष्टि नीति उभयका साक्षीरूप एक स्वतन्त्र परमात्मा है ऐसी मान्यता भी भिन्न-भिन्न परम्पराओंमें एक या दूसरे रूपसे दृढ़मूल होनेपर भी उसके सामने एक अधिक सूक्ष्म और अधिक ऊर्ध्वगामी मान्यता भी अस्तित्वमें आती है, जिसकी ऋग्वेदके कई सूक्तोंमें झाँकी मिलती है और जो उपनिषदोंके कई भागोंमें बहुत स्पष्ट है तथा
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy