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स्वरूप देखा; और स्वतंत्र परमात्मा भिन्नत्व एवं साक्षीत्वकी स्थिति में से एक ओर जीव और जगत् के साथ अभिन्न स्वरूपमें पर्यवसित हुआ, तो दूसरी ओर स्वतंत्र जीव ही परमात्मरूप देखे जाने लगे। सारांश यह कि एक ओर अभेददृष्टिके विकास के परिणामस्वरूप परमात्मा या परब्रह्मरूप एक ही तत्त्व वास्तविक माना गया और उसमें जीवोंका एवं जगत् तकका अस्तित्व लुप्त हो गया, तो दूसरी ओर बहुआत्मवादकी मान्यतामें अनेक आत्माओंका स्वतंत्र अस्तित्व माने जानेपर भी वे आत्मा परमात्मस्वरूप या परब्रह्मस्वरूप माने गये । पहले अभेद में जीव परमात्मामें विलीन हो गये, तो दूसरे अभेद में जीवोंमें ही परमात्मा
समा गया ।
परमात्मतत्त्व
प्रकृति या निसर्ग पूजामेंसे शुरू होकर परमात्माकी ध्यानोपासना में पर्यवसान पानेवाली मानवीय मानसकी विचारयात्रा मुख्य रूप से उपलब्ध वैदिक, बौद्ध और जैन ग्रन्थोंमें दृष्टिगोचर होती है। वैदिक वाङ्मय में वेदों और उपनिषदोंका, उनमें भी ऋग्वेदका स्थान अनेक दृष्टिसे महत्त्वका है। ऋग्वेदके प्रारम्भिक स्तरसे लेकर उपनिषद् के अन्तिम स्तर तक में इस समग्र विचारयात्राका चित्र अत्यन्त उठावदार और असन्दिग्ध रूपसे आलिखित है। ऋग्वेद में सूर्य, चन्द्र, उषस्, अग्नि, वायु आदि प्राकृतिक'तत्त्व उनकी महत्ता एवं अद्भुतता के कारण माने जाते हैं, उनकी स्तुति होती है और वे पूजे भी जाते हैं, पर साथ ही उन तत्वोंकी महत्ताकी प्रेरक शक्तिरूपसे अनेक देव अस्तित्वमें आते हैं और वे देव ही उस-उस प्राकृतिक घटनाके कर्ता माने जाते हैं । यह भूमिका अनेकदेववाद की है इसमें धीरे-धीरे सुधार और परिवर्तन होता है । अनेकदेववादमें एक-एक देव उस उस मानवसमूह में माना जाता था और उसकी पूजा भी होती थी, पर वे