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________________ ५२ श्रध्यात्मविचारणा लुप्त होकर मात्र छायारूप रह जाता है, और प्राकृतिक जगत् भी एक ऐसा छायारूप ही समझा जाने लगता है । : मानवीय मानस बहिर्मुख भूमिकासे गुजरकर जितने अंशमें अन्तर्मुख होता गया उतने अंशमें अभेददृष्टिका विकास देखा जाता है, और वह जैसे-जैसे अधिक अन्तर्मुख होता गया वैसेवैसे उसकी अभेददृष्टिमें भी विस्तार और विकास होता गया है । जब उसने सबसे ऊँची ऊर्ध्वमुख या सर्वतोमुख भूमिका में प्रवेश किया तब तो उसने प्रायः भेददृष्टिका लोप ही कर डाला और अभेददृष्टिके नये-नये शिखरोंपर अपनी विजयपताका फहराई | इसके साथ ही साथ दूसरी भी ध्यान देनेयोग्य बात यह है कि विकासकी बहिर्मुख भूमिकाके समय मनुष्य देव या देवोंको जिस भावनासे मानता या पूजता था वह भावना, उसके मानसकी अन्तर्मुख स्थिति के समय कुछ परिवर्तित होती है और ऊर्ध्वमुख स्थितिके समय तो यह परिवर्तन बहुत बड़ा रूप धारण करता है । मनुष्य प्रारम्भमें देवको सर्जनका कर्ता मानकर पूजता । बादमें उसमें कर्तृत्वक भावनाके साथ-साथ न्यायकर्ता की भावनाका भी समावेश हुआ; अर्थात् देव सृष्टिका कर्ता है इतना ही नहीं, पर वह जीवोंको न्यायमार्गपर प्रेरित करनेवाला होनेसे उनके सुकृत- दुष्कृत के अनुसार अच्छे-बुरे फल भी देता है । संक्षेप में कहना हो तो ऐसा कहा जा सकता है कि देव जीवोंका नीतिनियामक है । जब मानव-मन इससे भी अधिक अन्तर्मुख और कुछ ऊर्ध्वमुख बना तब उसने देव या परमात्माको कर्ता या नीतिनियामक रूपसे न देखकर मात्र साक्षी रूपसे देखने, उपासना करने और ध्यान धरनेकी वृत्ति अपनाई । ऊर्ध्वमुखताकी भूमिका में जैसे-जैसे वह आगे बढ़ता गया वैसे-वैसे उसने उस परमात्माको भिन्न या साक्षीरूप माननेके बदले उसका अभिन्न
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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