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________________ परमात्मतत्त्व ५१ बालक के मानसिक विकासकी भाँति मानवजातिके मानसका भी क्रमविकास देखा जाता है। इस विकासकी तीन भूमिकाएँ हैं-बहिर्मुख, अन्तर्मुख और ऊर्ध्वमुख या सर्वतोमुख' । धर्म एवं उसके साथ अनिवार्य रूपसे संकलित देव, अधिदेव देवाधिदेव और परमात्माके स्वरूपके बारेमें, मानवमानसकी विकास भूमिका के अनुसार, उत्तरोत्तर नये-नये विचार होते रहे हैं । इन नये-नये विचारोंके कारण नई-नई मान्यताएँ भी स्थिर हुई हैं । बहुत बार ऐसा भी देखा जाता है कि बादकी भूमिका मेंसे निष्पन्न धार्मिक तथा ईश्वरसम्बन्धी मान्यताएँ प्रचलित हों ऐसे मण्डलों या वर्तुलोंमें भी पूर्वकालीन भूमिकामें से पैदा हुए या बँधे हुए विचार और मान्यताएँ भी सुरक्षित रही हैं । ईश्वर या परमात्माविषयक सभी ज्ञात मतोंको सामान्यतः ध्यान में रखकर उनका रुख जाँचे तो पहली बात यह नज़र में आती है कि ईश्वर के स्वरूपसे सम्बद्ध विचार भेददृष्टिमें से शुरू होकर उत्तरोत्तर अभेददृष्टिकी ओर ही आगे बढ़े हैं। भेददृष्टिमें जीव और प्राकृतिक तत्त्वोंका भेद, प्राकृतिक घटनाओं और उनके प्रेरक देवोंका भेद, अनेक देवोंका पारस्परिक भेद और देवों तथा परमदेव परमात्माका भेद - - इस तरह अनेक - विध भेदोंका समावेश होता है; जब कि अभेददृष्टिमें प्राकृतिक दृश्य एवं घटनाओं और उनके प्रेरक देवोंके बीच का भेद लुप्त हो जाता है, अनेक देवोंके बीचका पारस्परिक भेद भी नष्ट हो जाता है । वह यहाँतक कि अन्ततः जीव और परमात्मा के बीच का भेद भी १. एडवर्ड केर्ड नामक एक विद्वान्ने धर्मके विकासकी तीन भूमिकाएँ निश्चित की हैं। वह कहता है कि - " We look out before we look in; and we look in before we look up." — हिन्दू वेदधर्म, पृ० १५
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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