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________________ ४८ अध्यात्मविचारणा इतने अधिक रंगे हुए थे कि वे स्वयं स्वाभिप्रेत सन्ततिकी सत्ता माननेसे हिचकिचाते थे, और इसीलिए उनको मान्यतामात्र क्षणजीवी-क्षणविनश्वर भावों तक ही सीमित रहती। इसी कारण वे क्षणवादी समझे गये । सांख्यसम्मत बुद्धितत्त्व में सुख, ज्ञान, धर्म आदि भाव माने गये हैं। जैनसम्मत जीवतत्त्वमें चैतन्य, वीर्य आदि गुण या शक्तियाँ और उनके कार्य अर्थात् पर्याय माने गये हैं। न्याय-वैशेषिकसम्मत आत्मतत्त्वमें ज्ञान, सुख, प्रयत्न, धर्म आदि गुण स्वीकार किये गये हैं। इसी प्रकार बौद्धदर्शनसम्मत नामतत्त्वमें वेदना विज्ञान, संज्ञा और संस्कार स्कन्धोंकी मान्यता है । यहाँपर स्कन्ध अर्थात् अंश । ये अंश केवल कल्पनासे ही भिन्न हैं; वस्तुतः वे परस्पर अविभाज्य होनेसे सहभू एवं सहभावी हैं। यह संक्षिप्त तुलना इतना जानने के लिए पर्याप्त होगी कि सम्प्रदाय एवं दर्शनभेदसे आत्मतत्त्वके स्वरूपकी मान्यता चाहे जितनी विभक्त क्यों न हुई हो, पर सभी दर्शन भिन्न-भिन्न शब्दोंका प्रयोग करने के बावजूद भी अन्ततः एक मौलिक समान भूमिकापर ही आकर ठहरे हैं। - यहाँपर प्रसंगवश यह भी जानना ज़रूरी है कि सांख्यके प्रकृति-भिन्न कूटस्थ एवं बहुपुरुषवादने आगे जाकर जिस तरह पुरुषा द्वैत तथा ब्रह्माद्वैतका रूप ग्रहण किया और इसके परिणामस्वरूप मायावाद अस्तित्वमें आया, उसी तरह बौद्धसम्मत नामरूपवाद भी कालान्तरमें केवल नामवाद अर्थात् विज्ञानवादरूपसे प्रतिष्ठित हुआ और विज्ञानसे भिन्न 'रूप' के वास्तविक अस्तित्वके. इनकार में परिणत हुआ । विज्ञानाद्वैतकी ब्रह्माद्वैतके ऊपर छाप है या ब्रह्माद्वैतकी विज्ञानाद्वैतके ऊपर छाप है ?-यह प्रश्न विचारणीय होनेपर भी यहाँपर इसके बारेमें विस्तार न करके इन दोनों अद्वैतोंके तारतम्यपर प्रकाश डालना विशेष उपयुक्त होगा।
SR No.023488
Book TitleAdhyatma Vicharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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