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श्रात्मतत्त्व
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इकाई जैसी बन गई और वे स्वयं सन्तति माननेपर भी न मानते हों ऐसे आभास या भ्रान्ति में पड़ गये । इससे उनका वाद 'क्षणिकवाद' के नाम से प्रसिद्ध हुआ । विश्लेषणकी सूक्ष्मताका यश भले ही बौद्धों को मिले, पर वस्तुतः वे परिणामि नित्यतावादी ही हैं और इसीलिए वे सांख्य एवं जैनदर्शनसम्मत परिणामि नित्यतावादसे जुदा नहीं पड़ते, सोचने पर ऐसा प्रतीत होता है ।
जैनदर्शन में द्रव्य एवं पर्याय ये दो शब्द प्रसिद्ध हैं । सामान्यतः बौद्ध जैसे प्रतिवादी ही नहीं, स्वयं जैन भी, मानो पर्यायोंमें अनुस्यूत एक स्थिर तत्त्व हो इस तरह द्रव्यकी कल्पना करते हैं । यह भी एक भ्रान्ति है । द्रव्य शब्द में 'द्रु' धातु है । उसका अर्थ है द्रवित होना - बहना । इस तरह द्रव्यका अर्थ हुआ प्रवाह । कालमें जो बहता रहे वह द्रव्य । यही अर्थ सन्तति और सन्तान शब्दोंसे सूचित होता है । जो कालपट के विस्तार के साथ ही फैलता या विस्तृत होता रहे अथवा बीचमें विच्छिन्न हुए बिना निरन्तर सातत्यका अनुभव करता रहे वह तत्त्व सन्तान कहलाता है । अतः जैनदर्शन द्रव्य शब्द पसन्द करे या बौद्धदर्शन सन्तान शब्द पसन्द करे अथवा दोनों नित्य शब्द पसन्द करें, इससे तात्पर्य में ज़रा भी फ़र्क नहीं पड़ता । उदयन न्यायकुसुमाञ्जलि में 'प्रवाहोऽनादिमानेषः' (का० ६ ) ऐसा जो कहता है वह यही वस्तु है । जिसने बौद्धदर्शनको सर्वप्रथम निरन्वय नाशवादी कहा उसने ऐसा मान लिया होगा कि पूर्वापर क्षणोंके बीच बौद्ध कोई अन्वयी ( स्थिर ) तत्त्व तो मानते ही नहीं, तो फिर निराधार क्षण कैसे उत्पन्न हो सकते हैं ? परन्तु हमें तो यह सोचना चाहिये कि स्वयं बौद्ध भी जड़-चेतनकी नाना सन्ततियाँ अनादिसिद्ध मानते हैं, अतः अन्वय नहीं है ऐसा कैसे कहा जा सकता है ? पर सच तो यह है कि बौद्ध तार्किक नित्यतावाद के खण्डनके आवेशसे
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